२०२ गीता-हृदय अन्तिम-२८वें-श्लोकमे भी यज्ञ शब्द पाया है। मगर उसका यही मतलब है कि यज्ञ कोई उत्तम चीज है जिसका फल बहुत ही सुन्दर और रमणीय होता है। इससे ज्यादा कुछ नहीं कहा गया है। नवेंके १५, १६ तथा २०-२८ श्लोकोमें इस यज्ञका विस्तार पाया जाता है । १५वेमें ज्ञान-यज्ञका ही विभिन्न रूप बताके दिखाया है कि उसके द्वारा कैसे भगवानकी पूजा होती है । १६३में भगवानको ही यज्ञ करार देके वैदिक यज्ञके साधन घी, अग्नि आदिको भी भगवानका ही स्वरूप कह दिया है। २०, २१ श्लोकोमें वैदिक सोम-यागादिका क्या परिणाम होता है और स्वर्ग पहुँचके उस यज्ञके करनेवाले फिर क्योकर कुछी दिनो बाद लौट आते तथा जन्म लेते है, यह बताया गया है। २२वें में पुनरपि उसी ज्ञान-यज्ञके महत्त्वका वर्णन है । २३-२५ श्लोकोमें सातवें अध्यायकी ही तरह दूसरे-दूसरे देवताओके यज्ञोकी बात कहके उसमें इतना और जोड दिया है कि वह भी भगवानकी ही पूजा है, हालांकि जैसी चाहिये वैसी नही है । क्योकि उसे करनेवाले यह बात तो समझ पाते नही कि यह भी भगवत्पूजा ही है । इसीलिये वे चूकते है----उनका पतन होता है। जिस चीजमें मन लगाइये वही पहुँचियेगा-वहीं बनियेगा, यही तो नियम है और वे लोग तो दूसरोमें-भूत-प्रेत, पितर आदिमें ही मन लगाते हैं, उसी भावनासे यज्ञ या पूजन करते है। फिर उन्हें भग- वान कैसे मिलें ? यही उनका चूकना है। इस अध्यायके २६-२८ तीन श्लोकोमें जो कुछ कहा गया है वह है तो यज्ञ ही। मगर है वह बहुत बडी चीज । कोई भी काम, जो निश्चित कर दिया गया हो, करते रहिये । बस, वही भगवत्पूजा होती है यदि इसी भावनासे वह काम किया जाय, यही अमूल्य मन्तव्य इन श्लोकोमें कहा गया है । कर्मोके छुटकारेके लिये खुद कर्म ही किस प्रकार साबुनका काम करते है, यही चीज यहाँ पाई जाती है। इन श्लोकोके सिवाय पीछेके . .
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