२०० गीता-हृदय ध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय सशितव्रता ।" फिर ३२वें श्लोकमें भी इसकी पुष्टि कर दी गई है कि "इस प्रकारके अनेक यज्ञ वेदादि सद्ग्रन्थोमें बताये गये है और सभीके सभी क्रियात्मक या क्रियासाध्य है"-"एव बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे। कर्मजान्विद्धितान्सर्वान् ।" आखिरमें ज्ञान- यज्ञको और यज्ञोसे उत्तम कहके इस प्रसगको पूरा किया है। फिर ज्ञानकी प्राप्तिका विचार शुरू किया है। पांचवें अध्यायमें तो एक ही बार अन्तिम-२६वें-श्लोकमें यज्ञ शब्द आया ही है। उसमें इतना ही कहा गया है कि परमात्मा ही यज्ञो तथा तपोको स्वीकार करनेवाला एव सभी पदार्थोका बडेसे बडा शासक और नियत्रणकर्ता है। लेकिन यह बात भी है कि सबोका कल्याण भी वह चाहता है-"भोक्तार यज्ञतपसा" आदि। यह दूसरी बात है कि चौथे अध्यायमें जिस प्राणायामको यज्ञ कहा है उसीका कुछ अधिक विवरण और तरीका इस अध्यायमें दिया गया है। छठेमें तो प्राणायामकी ही विधि विशेष रूपसे दी गई है। फलत इस दृष्टिसे तो वह भी यज्ञप्रति- पादक ही है। सातवें अध्यायकी यह हालत है कि उसके २०से २३तकके चार श्लोकोमे निचले दर्जे के-जघन्य यज्ञोका वर्णन करके अन्तमें कह दिया है कि जो भगवानके लिये यज्ञ करता है वही सबसे अच्छा है । यह एक अजीबसी बात है कि जिसकी मर्जी जिस चीजमें हो उसकी श्रद्धा उसीमें मजबूत कर दी जाती है। यह काम खुद भगवान करते है ऐसी बात “तस्य- तस्याचला श्रद्धा" (२१) मे साफ ही कही गई है। इसका एक मतलव तो यही है कि छोटी-छोटी चीजोमें एकाग्रता होने और श्रद्धा जम जानेपर मनुष्यका अपने दिल-दिमागपर काबू होने लगता है। इसलिये मौका पडनेपर ऊँची चीजमें भी वह उसे लगा सकता है। यकायक वैसी चीजमें लगाना असभव होता है । इसीलिये पतजलिने योगसूत्रोमें साफ ही कहा
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