१८८ गीता-हृदय नियत न करे। इसीलिये इसे मनकी भी मस्ती कहा करते है। खतरनाक फोडेके चीरने-फाड़नेके समय डाक्टर लोग मनुष्यको क्लोरोफार्मके प्रभावसे बेहोश कर देते है, ताकि उसे चीर-फाडका पता ही न चले। उसका मन कही जाता नही-किसी चीजमें बंध जाता नहीं। किन्तु निश्चेष्ट और निष्क्रिय हो जाता है, उसकी सारी हरकतें वन्द हो जाती है, जैसे मुर्दा हो गया हो। यही वात मस्तीकी दशामे भी भनकी होती है । जब दिल अपने रगमें आता है और प्रेमके प्यालेमें लिपट जाता है तो गोया मनको क्लोरोफार्म दे दिया और वह मुर्दा बन जाता है। फिर तो कुछ भी कर नहीं सकता। दिलकी इसी दशाको साम्यावस्था या साम्ययोग कहते हैं । मनकी छूतका ऐसी दशामे न दिल पर असर होता है और न आगेवाला तूफान चालू होता है । जब डकका ही असर न हो तो हायतोबा, चिल्लाहट और रोने-धोने या मरनेका सवाल ही कहाँ ? इस दशामे भीतरकी शान्ति ज्योकी त्यो अखड बनी रह जाती है। हृदयकी गभीरता (selenity) नही टूटती और कोई खलबली मचने पाती नहीं। जब बाहरी चीजोका उसपर असर होता ही नही तो शान्तिभग हो कैसे ? चट्टानसे टकराके जैसे लहरें लौट जाती है, छिन्न-भिन्न हो जाती है, ठीक यही हालत मनके द्वारा भीतर आनेवाले भौतिक पदार्थोकी होती है। वे कुछ कर पाते नही। फलत अपने- पराये, शत्रु-मित्र, हानि-लाभ, बुरे-भलेका द्वन्द्व भीतर हो पाता नहीं। वहाँ तो सभी चीजें एकसी ही रह जाती है। जब उनका असर ही नहीं हो पाता तो क्या कहा जाय कि कैसी है ? इसीलिये उन्हें एकसी कहते है। वे खुद एकसी बन तो जाती है नही। मगर जब उनकी विभिन्नताका, उनके भले-बुरेपनका अनुभव होता ही नही तो, उन्हें समान, सम या तुल्य कहने में हर्ज हई क्या ? यही बात गीताने भी कही है । और जब भीतर असर हुआ ही नही, तो वाहरी महाभारतकी
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