१८४' गीता-हृदय हुआ। उसका दूसरा पहलू तो अभी बाकी ही है और गोताने उसपर काफी जोर दिया है। वही तो आखिरी और असली चीज है । इस पहले पहलूका वही तो नतीजा है और यदि वही न हो तो अन्ततोगत्वा यह एक प्रकारसे या तो बेकार हो जाता है या परिश्रमके द्वारा उस दूसरेको सम्पादन करने में प्रेरक एव सहायक होता है । यही कारण है कि गीतामें पहलेकी अपेक्षा उसीपर अधिक ध्यान दिया गया है। वात यो होती है कि मनका भौतिक पदार्थोसे ससर्ग होते ही उनकी मुहर उसपर लग जाती है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार फोटोग्राफी में फोटोवाली पटरी या शीशेपर सामनेवाले पदार्थोंकी। सहसा देखनेसे यह पता नहीं चलता कि सचमुच उस शीशेपर सामनेकी वस्तुको छाप लगी है , हालाँकि वह होती है जरूर । इसीलिये तो उसे स्पष्ट करनेके लिये पीछे यत्न करना पडता है । मन या बुद्धिपर भी लगी हुई पदार्थोकी छाप प्रतीत नहीं होती। क्योकि वे तो अदृश्य है-अत्यन्त सूक्ष्म है। मन या बुद्धिको देख तो सकते नहीं। उनका काम है पदार्थोकी छाप या प्रतिबिम्ब लेके बाहरका अपना काम खत्म कर देना और भीतर लौट आना। मगर भीतर आनेपर ही तो गडबड पैदा होती है । मनने बाहर जाके पदार्थोको प्रकट कर दिया-जो चीजे अज्ञानके अन्धकारमे पडी थी उन्हे ज्ञानके प्रकाशमे ला दिया। अब उन चीजोकी बारी आई। उनकी छापके साथ जब मनीराम (मन)) मोतर घुसे तो उन पदार्थोंने अब अपना तमाशा और करिश्मा दिखाना शुरू किया । जहाँ पहले भीतर शान्तिसी विराज रही थी, तहाँ अब ऊधम और बेचैनी-उथल-पुथल-शुरू हो गई ! मालूम होता है, जैसे बिरनीके छत्तमें किसीने कोई चीज घुसेड दी और पहले जो वे भीतर चुपचाप पड़ी थी भनभनाके बाहर निकल आई। किसी छूतवाली या सक्रामक बीमारीको लेके जब कोई किसी
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