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. रसका त्याग १८३ है, यदि उसे वह मौका दे । नही तो वह भी देख नही पाती। मगर सूक्ष्म दृष्टि और वही यथार्थ दृष्टि है-तो उस दृश्य जलको न देख अदृश्य वायुवोको ही देखती है। यही दशा नरसीकी थी। यही दशा गीताके योगी या समदर्शीकी भी समझिये। यदि नौ मन बालूके भीतर दो-चार दाने चीनी के मिला दिये जायें तो हमारी तेजसे तेज आँखे भी उनका पता लगा न सकेगी, चाहे हम हजार कोशिश करे। मगर चीटी ? वह तो खामखा ढूँढ-ढाँढके उन दानोतक पहुँची जायगी। उसे कोई रोक नहीं सकता। समदर्शी भक्तोकी भी यही दशा होती है। जिस प्रकार चीटीकी लगन तथा नाक तेज और सच्ची होनेके कारण ही वह चीनीके दानोतक अवश्य पहुँचती और उनसे जा मिलती है, बालूका समूह जो उन दानो और चीटीके बीचमें पडा है उसका कुछ कर नहीं सकता; ठीक वही बात ज्ञानी एव समदर्शी प्रेमी जनोकी होती है । उनके और भगवानके बीचमे खडे ये स्थूल पदार्थ हर्गिज उन्हे रोक नही सकते । शायद किसी विशेष ढगका एक्स रे (Xray) या खुर्दबीन उन्हे प्राप्त हो जाता है। फिर तो शत्रु-मित्र, मिट्टी-पत्थर, सोना, सुख-दुख, मानापमान आदि सभी चीजोके भीतर ‘उन्हें केवल सम ही सम नजर आता है। पर्दा हट जो गया है, नकाब 'फट जो गई है। यही है गीताके साम्यवादके समदर्शनका पहलू और यही है उस ज्ञानकी दशाविशेष । रसका त्याग मगर यह तो एक पहलू हुआ। मन या बुद्धिका पदार्थों के साथ सम्बन्ध होनेपर भी उनके बाहरी या भौतिक आकार एव रूपकी छाप उनपर लगने न पाये और ये इन पदार्थोंके इन दृश्य आकारो एव रूपोसे अछूते रह जायँ, यह तो समदर्शन या गीताके साम्यवादका केवल एक पहलू