१८० गीता-हृदय , समके ही अर्थमें-उसी अभिप्रायसे ही-प्रयुक्त हुए है, भी इसी सिलसिले में गिन ले, तब तो गोताके अग-प्रत्यग मे यह बात पाई जाती है, यही मानना पडेगा। कर्मके विश्लेषण और इस समत्व या साम्यवादका ऐसा सम्बन्ध है कि दोनो एक दूसरेके बिना रही नही सकते। अब देखना है कि गीताकी यह समता, उसका यह समत्व, समदर्शन या साम्यवाद है क्या चीज । जबतक उसकी अमलियत और रूपरेखाका ही पता हमे न हो उसकी तुलना भौतिक साम्यवादके साथ कर कैसे सकते है ? तबतक हमें यह भी कैसे पता लग सकता है कि कौन भला, कौन बुरा है ? यदि भला या बुरा है तो भी किस दृष्टिसे, यह भी तो तभी जान सकते है । हरेक चीज हर दृष्टिसे तो कभी भी अच्छी या बुरी होती नही। आखिर पदार्थोके पहलू तो होते ही है और उन्हें हर पहलूसे अलग-अलग देखना जरूरी हो जाता है, यदि किसी औरके साथ मिलान या तुलना करना हो। यही कारण है कि गीताके समदर्शन या साम्यवादके हर पहलूपर प्रकाश डालना और विचार करना आवश्यक है। जैसा कि पहले भी कहा गया है, गीताका साम्यवाद, समदर्शन, समत्वबुद्धि या साम्ययोग तो दिल-दिमागकी ही दशा विशेष है। दर- असल युरोपमे हीगेल आदि दार्शनिकोने जिस विचारवाद या आईडिय- लिज्म (idealism) को प्रश्रय दिया और , उसका समर्थन किया है वह बहुत कुछ गीताके समदर्शनसे मिलता-जुलता है। यह भी नहीं कि यह कोरी मानसिक अवस्था विशेष है जिसे ज्ञानकी एक विलक्षण कोटि या दशा कह सकते है। निस्सन्देह पांचवे अध्यायके १८, १६-दो- श्लोकोमे जो कुछ कहा है वह तो दर्शन या ज्ञानात्मक ही है। क्योकि वहाँ साफही लिखा है कि पडित लोग समदर्शी होते या सम नामकी चीजको ही देखते है, "पडिता समर्शिन", "साम्ये स्थित मन ।" छठेके ८,६ श्लोकोमें भी “समलोष्ठाश्मकाञ्चन", "समबुद्धिविशिष्यते" के द्वारा
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