१७६ गीता-हृदय इस प्रकार यह वात निर्विवाद हो गई कि गीताने धर्मको कर्म, काम या अमलसे भिन्न नही मानके दोनोको एक ही माना है-धर्म ही कर्म है और कर्म ही धर्म । अर्जुनने जो दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें कहा है कि “धर्मके बारेमे कोई भी निश्चय न कर सकनेके कारण ही आपसे सवाल कर रहा हूँ"--"पृच्छामि त्वा धर्मसमूढचेता", उसका भी मतलब कर्तव्य, कर्म या कामसे ही है। इसीलिये तो उसे जो उत्तर दिया गया है उसमें कर्मके ही स्वरूप और उसके सभी पहलुवोका विवेचन किया गया है। यही तो खूबी है कि शुख्से लेकर अन्ततक जो भी विवेचन किया गया है वह कर्मका ही है, न कि धर्मका। एक भी स्थानपर धर्मका उल्लेख करके विश्लेषण या विवेचन पाया जाता है नहीं। अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमें जो कुछ कहना शुरू हुआ है वह भी मरने-मारने और युद्ध करनेकी ही वात लेके । इन्ही बातोको धर्म कहके शुरू करते तो भी एक बात थी। मगर वहाँ तो सीधे कौन मारता है, कौन मरता है आदि प्रश्न ही उठाये गये है और उन्हीका उत्तर दिया गया है। युद्ध करो, तैयार हो जाओ, लडनेका निश्चय कर लो, आदिके ही रूपमे बार-बार उपसहार किया गया है, न कि धर्म करो, ये धर्म है, इसलिये इन्हें करो, आदिके रूपमें । खूबी तो यह है कि यह सभी बातें स्वतत्र रूपसे कहके आगे ३१-३३ श्लोकोमें यह भी बात कहते है कि धर्मबुद्धिसे भी यही काम कर सकते हो यह युद्ध और मरने-मारनेका काम धर्म समझके भी करना ही होगा। इससे तो साफ है कि पहले धर्म समझके इन्हें करनेपर जोर नही देके कर्त्तव्य- बुद्धि या विवेकवुद्धिसे ही इन्हें करनेको कहा गया है। इस प्रकार सभी कामोको धर्मके भीतर डाल देनेका मतलव यह हो जाता है कि धर्म वहुत बडा एव व्यापक बन जाता है और उसका सर्वजन- प्रसिद्ध सकुचित रूप जाता रहता है। फलत लोगोमे जो धर्माचरणकी प्रवृत्ति आमतौरसे पाई जाती है उसमे काफी फायदा उठाके सभी समा-
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