१७४ गीता-हृदय "श्रेयान्स्वधर्मो विगुण परधर्मात्स्वनुष्ठितात्" यह श्लोकका आधा ज्योका त्यो दोनो ही जगह पूर्वार्द्धमे आया है। फलत यदि १८वेमें धर्मका अर्थ कर्म ही है, तो तीसरेमें भी यही बात है-होनी चाहिये । यह भी वात है कि तीसरे अध्यायके शुरूसे लेकर इस श्लोकके पूर्वतक कर्मकी ही वात लगातार आई है। उसकी शृखला टूटी नहीं है। इसलिये धर्म शब्द भी कर्मके ही अर्थमें प्रयुक्त हुआ है यही मानना उचित है । इस प्रकार देखनेपर तो सिर्फ चौथे अध्यायके ७, ८ तथा अठारहवेंके ३१, ३२ एव ३४ श्लोकोमे जो धर्म शब्द कृष्णके मुखसे निकले है केवल वही, मालूम पडता है, धर्मके विशेष या पारिभाषिक अर्थमे आये हैं। मगर यहाँ भी कुछ बातें विचारणीय है । चौथे अध्यायमें तो धर्मका उल्लेख अवतारके ही प्रसगमें हुआ है । वहाँ कहा गया है कि जब समाजमें उपद्रव होने लगता है और दुष्टोको वृद्धि हो जाती है तो अवतारोकी जरूरत होती है। ताकि भले लोगोकी, सत्पुरुषोकी रक्षा हो सके। अब यदि इस वर्णनकी मिलान सोलहवे अध्यायके असुरोके प्राचरणोंसे करें और तुलसीदासके "जव जव होइ धर्मकी हानी । बाढहिं असुर महा अभिमानी" वचनको भी इस सिलसिलेमे खयाल करे, तो पता लग जाता है कि धर्मका मतलव यहाँ समाज-हितकारी समस्त आचरणोसे ही है। जिन कामोंसे समाजका मगल हो वही धर्म है, ऐसा ही अभिप्राय कृष्णका प्रतीत होता है। वेशक, सिर्फ १८वे अध्यायके ३१, ३२ तथा ३४ श्लोकोमें यह बात जरूर मालूम होती है कि सामान्य कर्तव्य-अकर्त्तव्यसे अलग धर्म-अधर्म है। ३०वें श्लोकमें प्रवृत्ति-निवृत्ति शब्दोसे इन्ही धर्म और अधर्मको कहा है। इसके सिवाय जिस प्रकार वहाँ कार्याकार्य-कार्य-अकार्य-अलग बताया है, न कि इन्हें धर्म-अधर्म-प्रवृत्ति-निवृत्ति-के ही भीतर ले लिया है, ठीक उसी प्रकार ३१वेमें भी अधर्म और धर्म तथा अकार्य एव कार्य जुदा-जुदा लिखा है । इससे साफ हो जाता है कि सामान्य कार्य और अकार्यसे अलग
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