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१७२ गीता-हृदय योग आदि शब्दोसे किया है, तहाँ धर्म शब्द मुश्किलसे किसी न किसी रूपमें-अधर्म, धर्म्य, साधय॑के रूपमें भी-सिर्फ तेंतीस बार आया है। खूबी तो यह है कि गीताके पहले श्लोकका धर्म तो नामके साथ ही लगा है। वह कोई धर्म जैसी चीजको खास तौर कहनेके लिये नही आया है। कुरुक्षेत्रकी प्रसिद्धि धर्मक्षेत्रके नामसे उस समय थी और यही बात श्लोकमें भी आ गई । अठारहवे अध्यायके ७०वे श्लोकमें जो 'धर्म्य' शब्द है वह भी कुछ ऐसा ही है । वह तो केवल 'सवाद'का विशेषण होनेसे उसके औचित्यको ही बताता है। उसका कोई खास प्रयोजन नही है। चौदहवेके दूसरे श्लोकके 'साधर्म्य'का धर्म शब्द भी दूसरे ही मानीमें बोला गया है, न कि कर्त्तव्यके अर्थमें । वह तो समानताकाही सूचक है । दूसरे अध्यायके ४०वे श्लोकका धर्म शब्द भी गीताके योगके ही अर्थमें आया है, न कि धर्मशास्त्रोके धर्मके मानीमें। इसी प्रकार के २, ३ श्लोकोमें जो धर्म्य और धर्म शब्द आये है वह ज्ञान-विज्ञानके ही लिये आये है, न कि अपने खास मानीमे। १२वेंके २०वे श्लोकका धर्म्य शब्द भी कुछ ऐसा ही है। वह समस्त अध्यायके प्रतिपादित विषयको ही कहता है। इसी प्रकार १८वेंके ४६वे श्लोकमें जो धर्म शब्द है उसीके अर्थमे उसी श्लोकमें कर्म शब्द आनेके कारण वह भी सकुचित अर्थमें प्रयुक्त नही हुआ है। उसी अध्यायके ६६वे श्लोकका धर्म शब्द भी व्यापक अर्थमें ही आया है और धर्म, अधर्म तथा दूसरे कर्मोंका भी वाचक है। यह बात प्रसगवश आगे कही जायगी और इसपर विशेष प्रकाश पडेगा। यह ठीक है कि उस धर्मको कर्मकी जगहपर प्रयोग नही किया है। क्योकि ऐसा करना असभव था। कहनेका आशय यह है कि जितना व्यापक अर्थ कर्म शब्द काहै उस अर्थमे वह धर्म शब्द नही पाया है और इसकी वजह है जो प्रसग- वश लिखी जायगी। इस प्रकार देखनेसे पता चलता है कि पांचसे लेकर सत्रह अध्यायतक