कर्म और धर्म १७१ इनीलिये तो कृष्णको कसके सुनाना पड़ा कि यह तो तुम्हारी अजीव पठिनाई है-"प्रज्ञावादाश्च भाषसे" (२०११) । धर्मकी यह परिभाषा तो जहनुममें भेजे जानेकी चीज है, उनन ऐसा समझके ही अध्यात्म विवेचनसे ही शुरू किया और अर्जुनको ललकारा। अर्जुनको गलती भी इसमे या पाही जाय ? जब धर्म-अधर्मके बारेमे इसी प्रकारकी मोटी बाते पही धीर लिखी जाती है और धर्म पालनके माय ही "अहिंसा परमोधर्म." गी दुहाई दी जाती है, तो उसका ऐसे मौकेपर घपलेमे पड जाना अनिवार्य था। दरअसल कर्मका असली रुप और उसका दार्शनिक विश्लेषण न जाननेके कारण ही तो धर्म-अधर्म और हिमा-अहिंसाका यह घपला आ पया होता है । इसलिये जरूरी हो गया कि वही विश्लेषण किया जाय । गीनाने यही किया भी। इससे तो साफ हो जाता है कि धर्म-अधर्मकी मपंगाधारण धारणा निहायत ही थोथी और ऐन मौकेपर खतरनाक हो जाती है । अर्जुनको जो धोका हुअा वह उसीके चलते । इसलिये आमतौरसे जिन लोग धर्म या अधर्म मानते है वह बच्चोकीसी बात हो जाती है । गीताने यह बात दिसला दी है। वह धर्म ही वया जिमके या जिसकी गनाधारण ममझके चलते ऐन मौकेपर, जब कि जीवन-मरणका सग्राम उपस्थित है, गडवड-घोटाला हो जाय ? धर्मको उस समय ठीक पथ- प्रदर्शन करना चाहिये। मगर वह तो उलटी गगा बहाने लगता है ! इनलिये धर्मगास्त्रियोकी बातोको ताकपर रखके उसका नये मिरेले विवेचन और विग्लेपण जरूरी हो जाता है । यही जरुरत गुरूमे ही बड़ी पूची भाव दियाके गीताने उमका नया विवेचन कर्मवे ही दार्गनिक दिलेषण (Philosophical analysis) के अाधारपर किया है। मोवि इसके बिना दूगरा रास्ता हई नहीं। पर भी तो देखिये कि जहाँ गोतामे गुरसे लेके अन्ततक कर्मका उल्लेख और यार मं गन्दने करनेके अलावे कार्य, फत्तंव्य, युद्ध, यज्ञ, यल, -
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