कर्म और धर्म १६७ इसीलिये गीताने न तो धर्मकी श्रेणियाँ बताके मुख्य, अमुख्य या प्रधान और गौण धर्म जैसा उसका विभाग ही किया है और न कोई दूसरी ही तरकीव निकाली है। गीताकी नजरोमे तो धर्म और कर्म या क्रिया (अमल या काम) एक ही चीज है। जिसे हम अग्रेजीमे ऐक्शन (action) कहते है उसमे और धर्ममे जरा भी फर्क गीता नही मानती। इसका मोटा दृष्टान्त ले सकते है। हिन्दू लोग चार वर्णोको मानते हुए उनके पृथक्-पृथक् धर्म मानते हैं। उनके सिद्धान्तमे वर्णधर्म एक खास चीज है। मगर चौथे अध्यायके १२, १३ श्लोकोकी अजीब बात है। १३वेमें तो वर्णधर्मोकी ही बात है। फिर भी कृष्ण कहते है कि "हमने चारो वर्णों की रचना कर्मोके विभागके ही मुताविक की है और ये कर्म गुणोके अनुसार बने स्वभावोके अनुकूल अलग-अलग होते है",-"चातुर्वण्यं मया सृप्ट गुणकर्मविभागश ।" यहाँ धर्मकी जगह कर्म ही कहा गया है । १२वे श्लोकमे भी कहा है कि “मर्त्यलोकमे कर्मोकी सिद्धि जल्द होती है। इसीलिये यहाँ उसी सिद्धि (इप्टसिद्धि) के लिये देवताओका यज्ञ किया करते है"-"काक्षन्त कर्मणा सिद्धि यजन्त इह देवता । क्षिप्र हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।" यहाँ यज्ञको कर्म कहा है, न कि धर्म; हालांकि यह तो पक्का धर्म है। धर्मोकी सिद्धि न कहके कर्मोकी सिद्धि कहनेका भी यही मतलब है कि धर्म और कर्म एक ही चीज है और गीता इन दोनोमे कोई भेद नहीं रखती। इसी प्रकार १८वे अध्यायके ४१-४४ श्लोकोमें भी चारो वर्णों के ही वोंकी वात आई है। ४५, ४६ श्लोकोमें भी उसी सम्बन्धमे यह बताया गया है कि उन धर्मों के द्वारा ही भगवानकी पूजा कैसे हो सकती है और इष्टसिद्धि क्योकर होती है। चारो वर्णोके कुछ चुने-चुनाये धर्मोको गिनाया भी गया है, जो पक्के और स्वाभाविक माने जाते है । साराश यह कि ये छे श्लोक वर्णोके धर्मोंको जितनी सफाईके साथ कहते हैं उतनी
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/१७२
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।