१६६ गीता-हृदय . रहते है। भगवानकी रजिशका भी सबसे बड़ा खतरा इस बातमें वना रहता है। इसीलिये स्वभावत उनकी पाबन्दी ठीक-ठीक की जाती है-कमसे कम पाबन्दीकी कोशिश तो जरूर होती है लेकिन बाकी कामोमें ? उनमें तो कोई डर-भय उस तरहका नही होता। हाँ, लोक-लाज या कानून-वानूनका डर जरूर रहता है। मगर लोगोसे छिप-छिपाके और कानूनी फन्दे से बच-बचाके भी काम किये जा सकते है, किये जाते है । कानूनकी अाँखमें धूल डालना चतुर खिलाडियोके लिये बायें हाथका खेल है। वे तो कानूनको बराबर चराते फिरते है। इसलिये उन्हें स्वतत्रता तो करीब-करीब रहती ही है। क्योकि भगवान तो यहाँ दखल देता नही और न धर्मराज या यमराज ही। यह तो धर्मसे बाहरकी चीजें है, जहाँ उनका अधिकार नहीं। यदि थोडा-बहुत मानते भी है कि वह दखल देगे तो भी यह बात अधूरी ही रह जाती है । क्योकि सन्ध्या, नमाजकी तरह सच बोलने या शराब न पीनेकी बात नहीं है । यदि ये चीजें धर्म में किसी प्रकार आ भी जायें तो भी इनका स्थान गौण है, मुख्य नही। देखते ही है कि सन्ध्या, नमाज वगैरहकी पावन्दीमें जो सख्ती पाई जाती है वह सच बोलने और सूद न लेने या शराब न पीनेमें हर्गिज नही है । बडे-बडे धर्माधिकारी भी बडे-बडे कारवारो और जमी- दारियोके चलानेवाले होते है, जहाँ झूठ बोलने और जाल-फरेवके विना काम चलता ही नही। मैनेजर, प्रबन्धक और कारपर्दाज वगैरहके जरिये वह काम करवाके अपने पिंडको बचानेकी बात केवल अपने आपको धोका देना है-आत्मप्रवचना है। जब कारवार उनका है, जमीदारी उनकी है तो उसके मुतल्लिक होनेवाले झूठ और जाल-फरेबकी जवाबदेही उन्हीपर होगी ही। यह डूवके पानी पीना और खुदासे चोरी करना ठीक नही। यदि कारवार और जमीदारीके फायदेके लिये वह झूठ और जाल न हो तो वात दूसरी है । मगर यहाँ तो उन्हीके चलानेके ही लिये ऐसा किया जाता है ।
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