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समाजका कल्याण १६१ ८ डालपर बैठके स्वतत्र गीत ही गा सकेगे। यही है गीताका इस सम्बन्धमे वक्तव्य, यही है उसका कहना। मगर जिनमे यही चीजे नहीं है जो असुर है-जो देव नही है उनका क्या कहना ? वे ईश्वरको क्यो मानने लगे? यह परस्पर विरोधी वाते जो है । यह होई नही सकता कि सदाचार और कर्तव्यपरायणता न रहे तथा बाहर-भीतर एक समान ही सच्चा व्यवहार भी न रहे; मगर ईश्वरवादी बने रहे। गीताकी नजरोमे ये दोनो बाते एक जगह हो नही सकती है। बेशक, आज तो धर्म और ईश्वरकी ठेकेदारी लिये फिरनेवाले ऐसे लोगोकी ही भरमार है जिनमे ये बाते जरा भी पाई नही जाती है । एक ओर देखिये तो कठोमाला, जटा, टीका-चन्दन, दड-कमडल और क्या क्या नही है। सभीके सभी धर्मवाले ट्रेडमार्क पाये जाते है । मगर दूसरी ओर ऐसे लोगोमे न तो कर्त्तव्य-अकर्तव्यका ज्ञान है, न तदनुकूल आचरणं है, न बाहर-भीतर सर्वत्र होनेवाली पवित्रताही है और न सच्चाई तथा ईमानदारी ही। आज तो यही बात धार्मिक ससारमे सर्वत्र ही पाई जाती है। सब जगह इसीकी छट है । कोई पूछनेवाला ही नही कि यह क्या अन्धेरखाता है। जिस हृदयमे भगवान बसे वह कितना पवित्र और कितना उदार होगा! उसकी गभीरता और उच्चता कैसी होगी! वह विश्वप्रेमसे कितना ओतप्रोत होगा । आखिर ईश्वर तो प्रेममय, सत्य, शुद्ध, आनन्दरूप और निर्विकार है न ? और वही हमारे हृदयमे बसता भी है। फिर भी यह गन्दगी और बदबू ? कस्तूरी जहाँ हो वहाँ उसकी सुगन्ध न फैले, यह क्या बात ? और ईश्वरकी गन्ध तो भौतिक कस्तूरी के गन्धसे लाख गुना तेज है। फिर हमारे दिलोमें, जहाँ वही मौजूद है, सत्य, प्रेम, दया, पवित्रता, सदाचार और अानन्द क्यो नही पाया जाता? इन चीजोका स्रोत उमड क्यो नही पडता ११ ?