१५८ गीता-हृदय विपरीतोको आसुरी सम्पत्ति कहा है। पाँचवे श्लोकमे यही बात साफ कह दी है कि देवी सम्पत्ति मुक्तिसम्पादक और कल्याणकारी है, जब कि आसुरी सभी बन्धनो और सकटोको पैदा करती है। साथ ही यह भी कहा है कि अर्जुनके लिये चिन्ताकी तो कोई बात हई नहीं। क्योकि वह तो देवी सम्पत्तिवाला है। इसके बाद छठे श्लोकके उत्तरार्द्धमें कहा है कि अवतक तो दैव सम्पत्तिका ही विस्तृत विवेचन किया गया है । मगर आसुरी तो छूटी ही है । इसलिये उसे भी जरा खोलके बता दें तो ठीक हो। फिर सातवेंसे लेकर अध्यायके अन्ततकके शेष १८ श्लोकोमें यही बात लिखी गई है। बेशक, अन्तके २२-२४ श्लोकोमे निषेधके रूपमें ही यह बात कही गई है। शेष श्लोकोमें तो साफ-साफ निरूपण ही है। यहाँ जो यह कहा गया है कि अवतक तो विस्तारके साथ दैव सम्पत्ति- का हो वर्णन आया है, उससे साफ हो जाता है कि गीताके शुरूसे लेकर सोलहवें अध्यायके कुछ श्लोकोतक मुख्यत वही बात कही गई है। यह तो निर्विवाद है कि पहले अध्यायमें खुलके समाज-सहारकी कडीसे कही निन्दा की गई है । दूसरेमे भी जो अर्जुनको यह कहा गया है कि लोग तुम्हे गालियां देंगे और तुमपर थूकेगे वह भी सामाजिक दृष्टिसे ही तो है। तीसरे अध्यायमे तो समाज रक्षार्थ यज्ञका विस्तार ही बताया गया है और कहा गया है कि समाजके लिये उसे मूलभूत मानना चाहिये । इसी प्रकार चौथेके “नाय लोकोऽस्त्ययज्ञस्य" (३१) आदिके द्वारा तथा छठेके "प्रात्मौपम्येन सर्वत्र सम पश्यति” (३२) के जरिये लोक-कल्याण- कारी भावनायो एव आचरणोका ही महत्त्व दिखाया है। सातवेंसे लेकर पन्द्रहवें अध्यायतक यही बात जगह-जगह किसी न किसी रूपमें बराबर पाई जाती है। इसलिये स्पष्ट है कि समाजके कल्याणसे ही गीताका मतलव है। यो तो योगका जो स्वरूप पहले बताया जा चुका है वह समाजके कल्याणकी ही चीज है । दसवें अध्यायके अन्तके ४१वें श्लोकमें
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