दैव तथा प्रासुर सम्पत्ति १५७ इसीलिये प्रौढ नैयायिक उदयनाचार्यने ईश्वर-सिद्धिके ही लिये बनाये अपने ग्रथ "न्यायकुसुमाञ्जलि'को पूरा करके उपसहारमें यही लिखा है। वे साफ ही सच्चे और ईमानदार नास्तिकोके लिए वही स्थान चाहते है जो सच्चे आस्तिकोको मिले। उनने प्रार्थनाके रूपमे अपने भगवानसे यही बात बहुत सुन्दर ढगसे यो कही है-“इत्येव श्रुतिनीति सप्लवजल योभिराक्षालिते, येषा नास्पदमादधासि हृदये ते शैलसारा- शया । किन्तु प्रस्तुतविप्रतीप विधयोऽप्युच्चैर्भवच्चिन्तका , काले कारुणिक त्वयैव कृपया ते भावनीया नरा।" इसका आशय यही है कि "कृपासागर, इस प्रकार वेद, न्याय, तर्क आदिके रूपमे हमने झरनेका जल इस ग्रथमे प्रस्तुत किया है और उससे उन नास्तिकोके मलिन हृदयोको अच्छी तरह धो दिया भी है, ताकि वे आपके निवास योग्य बन जायें । लेकिन यदि इतने पर भी आपको वहाँ स्थान न मिले, तो हम यही कहेगे कि वे हृदय इस्पात या वज्रके है। लेकिन यह याद रहे कि प्रचड शत्रुके रूपमें वे भी तो आपको पूरी तौरसे आखिर याद करते ही है। इसलिये उचित तो यही है कि समय आनेपर आप उन्हे भी भक्तोकी ही तरह सतुष्ट करें।" कितना ऊँचा खयाल है । कितनी ऊँची भावना है । गीता इसी खयाल और इसी भावनाका प्रसार चाहती है । दैव तथा आसुर सम्पत्ति अच्छा, अब जरा ईश्वरकी सत्ताको स्वीकार करनेका परिणाम क्या होता है, क्या होना चाहिये, इसपर भी गीताकी दृष्टि देखे । गीताके सोलहवें अध्यायके शुरूवाले छे श्लोकोमे देवी तथा आसुरी सम्पत्तियोका सक्षेपमे वर्णन कर दिया है। इन दोनोका तात्पर्य मनुष्यके ऐसे गुणो और आचरणोसे है जिनसे समाजका हिताहित, भला-बुरा होता है । कल्याणकारी और मगलमय गुणो एव आचरणोको दैवी सम्पत्ति और . .
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