१५४ गीता-हृदय ? साथ ही और भी बात कही गई है । वहाँ तो कहते है कि "अर्जुन, ईश्वर तो सभी प्राणियोके हृदयमें ही रहता है और अपनी माया (शक्ति)से लोगोको ऐसे ही घुमाता रहता है जैसे यत्र (ची आदि) पर चढे लोगोको यत्रका चलानेवाला--"ईश्वर सर्वभूताना हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति । भ्राम- यन्सर्वभूतानि यत्रारूढाणि मायया" ।। यहाँ दो बाते विचारणीय है। पहली है हृदयमे रहनेकी । यह कहना कि हृदय ईश्वरका घर है, कुछ ठीक नही जंचता है। वह जब सर्वत्र है, व्यापक है, तो हृदयमे भी रहता ही है। फिर इस कथनके मानी क्या यदि कहा जाय कि हृदयमें विशेषरूपसे रहता है, तो भी सवाल होता है कि विशेषरूपसे रहनेका क्या अर्थ ? यह तो कही नही सकते कि वहाँ ज्यादा रहता है और वाकी जगह कम । यह भी नही कि जैसे यत्रका चलानेवाला वीचमे बैठके चलाता है तैसे ही ईश्वर भी बीचकी जगह- हृदय-मे बैठके सबोको चलाता है। यदि इसका अर्थ यह हो कि हृदयके बलसे ही चलाता है तो यह कैसे होगा? जिस यत्रके वलसे चलाते हैं उसका चलानेवाला उससे तो अलग ही रहता है। मोटर या जहाज वगैरहके चलाने और घुमाने-फिरानेवाले यत्रसे अलग ही रहके ड्राइवर वगैरह उन्हें चलाते-घुमाते है । हृदयमे बैठके घुमाना कुछ जंचता भी नही, यदि इसका मतलव व्यावहारिक घुमाने-फिराने जैसा ही हो। इसीलिये मानना पडता है कि हृदयमें रहनेका अर्थ है कि वह हृदय- ग्राह्य है । सरस और श्रद्धालु हृदय ही उसे ठीक-ठीक पकड सकता है । दिमाग या बुद्धिकी शक्ति हई नहीं कि उसे पकड सके या अपने कब्जेमें कर सके । ईश्वर या ब्रह्म तर्क-दलीलसे जाना नहीं जा सकता, यह बात छान्दोग्योपनिषत्मे भी उद्दालकने अपने पुत्र श्वेतकेतुसे कही है। वहाँ कहा है कि अक्ल बघारना और बालकी खाल खीचना छोडके श्रद्धा करो ऐ मेरे प्यारे,-"श्रद्धत्स्व सोम्य" (६।१२।३) । और यह श्रद्धा हृदयकी
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