योग और मार्क्सवाद १४७ लेकिन यदि धर्म और ईश्वर सत्य नही है तब तो विज्ञान उनका पता नही ही लगा पायेगा, यह बात पक्की है और जो विज्ञानकी कसौटीपर खरा न उतरे वह तो जरूर ही नकली होगा। फिर हमे उसकी चिन्ता ही क्यो हो ? हमे तो उलटे इसमे खुशी होनी चाहिये कि मिथ्या चीजोसे पिंड छूटा। तब तो हमे मार्क्सवादका कृतज्ञ भी होना चाहिये कि उसने सत्यका पता लगाया और धर्म या ईश्वर जैसी मिथ्या चीजोसे हमारा पिंड छुडाया। आखिर मिथ्याचार और मिथ्या पदार्थोंसे चिपटे रहना तो कोई बुद्धिमानी है नहीं। यह तो किसी भी भलेमानसका काम नहीं है और हम-धर्मवादी-लोग यह तो दावा करते ही है कि हम भले लोग है। फिर तो हृदय से धर्मवादी खुश ही होगे कि चलो अच्छा ही हुआ और मिथ्या पदार्थोंसे पिंड छूटा। ईमानदारीका तकाजा तो यही है । इस प्रकार इस लम्बे विवेचनने यह साफ कर दिया कि गीताधर्म और मार्क्सवादका कही भी विरोध नही है। वे अनेक मौलिक बातोमे एक दूसरे के निकट पहुँच जाते है-मिल जाते है। बल्कि यो कहिये कि कई बुनियादी बातोमे गीताधर्म मार्क्सवादका पूर्णतया पोषक है । इतना कहनेमे तो किसीको भी आनाकानी नही होनी चाहिये कि मार्क्स- वादको गीतासे कोई आँच नही है-कोई भय नहीं है। मार्क्सवादसे गीताधर्मके डरने या उसे पांच लगनेका प्रश्न तो उठी नही सकता। ऐसा प्रश्न उठाना ही तो गीताधर्मको नीचे गिराना और उसके महत्त्वको कम करना है । वह तो इतनी मजबूत नीवपर खडा है, उसकी बुनियाद तो इतनी पक्की है कि वह सदा निर्भय है। उसे किसीसे भी भय नही है । वह इतना ऊँचा है कि उसतक कोई दुश्मन पहुँची नही सकता है। असलमें उसका शत्रु कोई हई नहीं। गीताधर्मका तो निष्कर्ष ही है "तुल्यो मित्रारिपक्षयो" (१४१२५), "सम शत्रौ च मित्रे च" (१२२१८) आदि-आदि। -
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