१४४ गीता-हृदय . खाने-पीने, पढ़ने-लिखने, कला-कौशल तथा ज्ञान-विज्ञानकी सभी सुविधायें प्राप्त हो, सबसे ऊंचे दर्जे के पारामका सभीके लिये-मानवमात्रके लिये -पूरा सामान होनेपर भी अन्वेषण, विज्ञान, कला श्रादिके लिये पर्याप्त समय सवको प्राप्त हो, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, पाला आदिको निर्मूल कर दिया जाय, प्रकृतिके साथ ही सघर्ष करके मौतके ऊपर भी कब्जा कर लिया जाय, आदि आदि। एक वाक्यमें "सर्वेऽपि सुखिन सन्तु सर्वे सन्तु निरामया । सर्वे भद्राणि पश्यतु मा कश्चिद् दुखभाग्भवेत्,” पूरी तरह चरितार्थ हो जाय । यह वाते केवल मनोराज्य नहीं है। विज्ञानके लिये ये सभी सभव है । यदि विश्वामित्रकी नई सृष्टि मानी जाती है तो आज भी विज्ञान क्या नहीं कर सकता है ? विश्वामित्रने भी यदि किया होगा तो विज्ञानके ही वलसे। यह ऐसी चीज नहीं है कि मानवमात्रमें किसीके भी लिये असाध्य हो। यह भी नहीं कि इसके लिये कोई खास ढगकी या अलौकिक तैयारी चाहिये । मार्क्सने तो इसका सीधा उपाय वर्गसंघर्ष वताया है। उसीका मार्ग अवाघ हो जानेपर यह सभी वाते अपने आप धीरे-धीरे हो जायेंगी। रूसने इसका नमूना पेश भी कर दिया है । वह इस मामलेमें बहुत कुछ अग्रसर हो गया है । असल में पूँजीवादी राष्ट्रोसे घिरे होनेके कारण ही- ऐसे राष्ट्रोसे जो उसे हजम करनेपर तुले बैठे है-उसकी प्रगतिमें वैसी तेजी नही पा सकी है। यदि यह बात न होती तो वह देश आज कहाँका कहाँ जा पहुंचा होता। फिर भी उसने जो कुछ किया है वह भी कम नही है। हमने अनीश्वरवादके सम्बन्धमे मार्क्सका मत स्पष्ट करी दिया है। मगर थोडी देरके लिये मान भी ले कि वह धर्म-वर्मसे नाता तोडनेको ही कहता है, तो हर्ज क्या है ? यदि ऊपर लिखी सभी बातोकी सिद्धिके लिये-भूमिपर ही स्वर्ग लानेके लिये-यह करना भी पड़े और ईश्वरको .
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