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योग और मार्क्सवाद १४३ स्थितप्रज्ञ का, बारहवे के १३-१६ श्लोको मे जो भक्तका और चौदहवेंके २२-२५ श्लोकोमे जो गुणातीतका वर्णन है वह हमारी आँखें खोल देता है, ताकि इस चीजकी कठिनाईका अनुभव करे । तेरहवेके २७,२८ श्लोकोमे भी यह बात मिलती है । अन्तमे अठारहवे अध्यायके ५०-५८ श्लोकोमे भी यह बात लिखी गई है। यदि हम इन सभी वचनोका पर्यालोचन और मन्थन करते है तो कठोपनिषत्वाली बात अक्षरश सत्य सिद्ध होती है और मानना पड जाता है कि गीताका योग असभवसी चीज है। फलत वह अपवाद स्वरूप ही हो सकता है, न कि मनुष्योके लिये नियम या सर्व-जन-सभव पदार्थ। सभी लोग ऐसी चीजको कमसे कम आदर्श वनाये यह भी उचित नही । आकाशके चाँदको जो आदर्श बनाये और उसीके पीछे अपने सभी कामोको चौपट करे वह पागलके सिवाय और कुछ नही। यह योग ऐसा नहीं कि उसे आदर्श बनाके हम कुछ और भी कर सकते है, जबतक वह प्राप्त न हो जाय । जब इस भौतिक ससारमे गीताधर्म-योग--अपवाद ही हो सकता है, न कि नियम, तो स्वभावत यह प्रश्न उठता है कि सर्वसाधारणके लिये जो चीज साध्य हो और इसीलिये जो हमारे लिये नियम जैसी सार्वजनिक वस्तु हो सके वह क्या है ? उत्तरमे बेखटके कहा जा सकता है कि वह है मार्क्सवाद । बहुत लोग इस बातको नही समझके ही नाक भौं सिकोडते है। हालाँकि हमने धर्म तथा ईश्वरके सम्बन्धमे मार्क्सवादका जो विश्लेषण किया है उससे लोगोका भ्रम कमसे कम उस सम्बन्धमे तो मिट जाना ही चाहिये । मगर वह तो मार्क्सवादका एक पहलू मात्र है । असलमे तो मार्क्सवाद साम्यवाद या वर्गविहीन समाजका निर्माण ही है । मार्क्सवादका तो यही लक्ष्य माना जाता है कि इस ससारको प्रानन्दमय, सुखमय, स्वर्ग या वैकुठ जैसा बना दिया जाय; न बीमारियाँ हो और न अकालमृत्यु हो, न कोई गरीब हो और न अमीर; सबोको समानरूपसे