१४० गीता-हृदय - त्याग कहा है । इससे स्पष्ट है कि नियत कर्म कहते है स्वाभाविक कर्मको और किसी कारणवश स्थिर या निश्चित किये गये ( assigned ) कर्मको भी। यज्ञ, दान, तप ऐसेही कर्मोमे आते है। अपने आश्रितोका पालन या रक्षा भी ऐसे ही कर्मोमें है। पहरेदारका पहरा देना, अध्यापकका पढाना या सेवककी सेवा भी ऐसी ही है। अनेक धर्म, मजहब या सम्प्रदायोंके अनुसार जिसे जो करनेको कहा गया है वह भी नियतकर्म या स्वधर्ममें पा जाता है। अपनी श्रद्धा और समझसे जो कुछ भी करता है वह तो पक्का-पक्की स्वधर्म है। इस प्रकार यदि देखा जाय तो गीताने धर्म-मजहबके झगडे और शुद्धि या तबलीगके सवालकी जडको ही खत्म कर दिया है । गीता इन झगडो और सवालोको भेडोका मुंडना ही समझती है। और आदमीको भेड बनाना तो कभी उचित नहीं। इसीलिये इन झमेलोमें पडनेकी मनाही उसने कर दी है। उसने तो अठारहवें अध्यायके ४८वें श्लोकमें यह भी कह दिया है कि बुराई-भलाई तो सभी जगह और सभी कामोमें लगी हुई है। इसलिये कर्मोके सम्बन्धमें अच्छे और बुरे होनेकी क्या बात? हमारा धर्म अच्छा, तुम्हारा बुरा, यह बात उठती ही है कैसे? सभी बुरे और सभी अच्छे है । किसने देखा है कि कौनसे धर्म भगवान या खुदा तक सीढी लगा देते है ? इसीलिये तीसरे अध्यायमें "श्रेयान्स्वधर्मो विगुण आदि आधे श्लोकके बाद कहा है कि “इसलिये स्वधर्म करते-करते मर जाना ही कल्याणकारी है, दूसरेका (पर)धर्म तो भयदायक है।" इतना ही नहीं। ठीक इस श्लोकके पूर्ववाले ३४वे श्लोकमें कहा है कि "हरेक इन्द्रियोके जो पदार्थ (विषय) होते है उनके साथ रागद्वेष लगे ही होते है, उनसे किसीका भी पिंड छूटा नहीं होता। सलिये इन रागद्वेषोसे ही बचना चाहिये । असलमे चीजे या उनका ताल्लुक ये खुद बुरे नही है-इनसे किसीकी हानि नहीं होती। किन्तु उनमें जो
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