स्वधर्म और स्वकर्म १३७ निरी भौतिक दृष्टिसे ही है। इतना चुभता हुआ, सक्षिप्त और माकूल उत्तर शायद ही मिले । अर्जुनकी धर्म-वर्मकी बातोकी जरा भी पर्वा नही की गई है । उनका खयाल ही नहीं किया गया है। सीधे सासारिक दृष्टिसे ही उसे कसके चपत लगाई गई है और करारी डाँट दी गई है। इन दो श्लोकोमे जो सिर्फ एक शब्द 'अस्वयं' आया है उससे शायद यह भ्रम हो कि स्वर्ग या परलोककी बात भी इसमे है । मगर सस्कृतमे 'अस्वर्ग या अस्वर्ग्य' शब्द मनहूस, अमगल आदिके ही मानीमे आता है। ऐन लडाईके समय इन बातोसे बढके मनहूस या अमगल होई क्या सकता है ? इसीलिये हम गीता-धर्मको मार्क्सवादका साथी पाते है। स्वधर्म और स्वकर्म इस सिलसिलेमे हम दो और बाते कहके यह प्रकरण पूरा करेगे। एक तो है अपने अपने धर्मोमे ही डटे रहने और दूसरेके साथ छेडखानी न करनेकी । अपने धर्मको कभी किसी दूसरे धर्मसे बुरा या छोटा न मानना और दूसरोके धर्मोपर न तो हाथ बढाना और न उनकी निन्दा करना, यह गीताकी एक खास बात है। गीताने इसपर खास तौरसे जोर दिया है। चाहे और जगह भी यह बात भले ही पाई जाती हो; मगर गीतामे जिस ढगसे इसपर जोर दिया गया है और जिस प्रकार यह कही गई है वह चीज और जगह नहीं पाई जाती । यो तो किसी न किसी रूपमे यह बात अन्य अध्यायो एव स्थानोमे भी पाई जाती है। मगर तीसरे अध्यायके ३५वे और अठारहवेके ४७, श्लोकोमे खास तौरसे इसका प्रतिपादन है। यहाँतक कि "श्रेयान्स्वधर्मो विगुण परधर्मात्स्वनुप्ठितात्" श्लोकका यह आधा भाग दोनो ही जगह ज्योका त्यो लिखा गया है। इससे गीताकी नजरोमे इसकी अहमियत बहुत ज्यादा मालूम पडती है। यह भी जान पडता है कि इस मामलेमें ४८
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