गीता-हृदय पन्ने उलटने लगा! उसने यह भी कहा कि यह ठीक है कि विरोधियोको भी ऐसा ही सोचना चाहिये , आखिर अक्लकी ठेकेदारी हमीको तो नहीं है, एक ही पक्ष के सोचने से दुनिया में काम भी नहीं चला करता। फिर भी उनकी आँखें तो बन्द है | वे तो लोभमें पडे है । उन्हें तो लोक-परलोक कुछ सूझता नहीं। लेकिन हमारी तो खुली है। हम तो सारा अनर्थ साफ देख रहे है। इसलिये हम तो सन्तोषको ही कल्याणकारी मानते है। यह भी ठीक है कि हम हटेगे तो शत्रु लोग हमें बर्बाद करके ही छोडेंगे। मगर इससे क्या ? हमारा परलोक तो न बर्बाद होगा, स्वर्ग वैकुठ तो मिलेगा, भगवान तो खुश होगे। इसलिये हमें हर्गिज-हर्गिज लडना नही चाहिये । ऐसा मालूम होता है कि किसी जमीदार या कारखानेदारके अत्याचारो- से ऊबकर हडताल या और तरहकी सीधी लडाई लडनेको जव किसान और मजदूर पूरी तरह आमादा है, ठीक उसी समय कोई धर्मध्वजी, धर्मका ठेकेदार गुरु, पीर, पडित, मौलवी या पादरी उन्हे धर्म और भगवानके नामपर सिखा रहा है कि कभी सघर्ष और लडाईका नाम न लो । राम, राम, महापाप होगा। यदि जमीदार-मालदार कष्ट देते है, तो बर्दाश्त करो। आखिर वे लोग बडे है, मालिक है। छोटोके लिये बडोकी बातें सहनेमे ही फायदा है । सन्तोष करो, तो भगवान खुश होगा, परलोक बनेगा । भुलावेमे मत पडो । वे गलती करते है तो करें, मगर उनकी देखा- देखी तुम लोग क्यो नादानी कर रहे हो, आदि आदि । और दूसरे अध्यायके शुरूके दो श्लोकोमें जो कुछ कृष्णके मुंहसे गीताने कहलवाया है वह तो ऐसा मालूम होता है कि कोई वर्गसंघर्षवादी मार्क्सवादी ऐसे उपदेशकोको और उन किसान-मजदूरोको भी फटकार रहा है जो भूलभुलैयाँमें पडके आगा-पीछा कर रहे है। गीताने धर्म और पुण्य-पाप आदिकी सारी दलीलोका जो उत्तर इन दो श्लोकोमें ही खत्म कर दिया है वह -
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