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अर्जुनकी मानवीय कमजोरियां १३५ अफसरोने जानबूझके ऐसी शैतानियत की और सिपाहियोकी स्वतत्रतापर ऐसी रोक लगाई कि वर्दाश्तसे बाहर थी। बात यह थी कि रूसके किसानो और मजदूरोके क्रातिकारी आन्दोलनोके साथ जहाजी सिपाही (sailors) सहानुभूति दिखाना चाहते थे। कारण, वह आन्दोलन उनके अपने ही मजलूम भाइयोका था। मगर इसमे अफसरोने अडगे डाले। फलतः विद्रोहकी आग भडक उठी और सिपाहियोने सभी अफसरोको चटपट कैद कर लिया ! फिर तो लेनेके देने पडे ! अफसरोकी सारी गर्मी ही गायव हो गई। उनने आर्जू मिन्नत की, माफी माँगी, आगेके लिये बाधा न डालनेके वादे किये। फिर क्या था ? दयामे आके सिपाहियोने उन्हे रिहा कर दिया। बस, मौका मिलते ही बाहरसे अपने पक्षकी फौज मंगाके अफसरोने उन्ही सिपाहियोका कत्लेआम शुरू कर दिया ! ऐसे समयकी दया नादानीकी पराकाष्ठा होती है और उसका नतीजा इसी तरह भुगतना पडता है । लेनिनने इस दयावाली नादानीका सुन्दर वर्णन सन् १९०५ वाली रूसी क्रान्तिके सम्बन्धके २२।१११६१७वाले ज्यूरिचके भाषणमे किया है। महाभारतके समय वही गलती अर्जुन भी ऐन मौकेपर करने जा रहा था। मगर इस ऐन मौकेपर पीछे हटनेके लिये कोई कारण तो चाहिये ही। दयाकी बात तो की जा नहीं सकती थी। जिनने सब कुछ किया और पाडव परिवारका सर्वस्व छीनने, उन्हे तग-तबाह करने, उनकी स्त्रीतकको वेइज्जत करने और उन्हे मार डालनेतकके लिये जिनने कोई भी दकीका वाकी नही रखा, यहाँतक कि जगलमे भटकनेके समय उन्हे चिढाने तथा जलेपर नमक छिडकनेके लिये वही राजसी ठाटवाटके साथ दुर्योधनका सारा समाज पहुँच गया था, उन्हीके साथ दया । ऐसा बोलनेकी हिम्मत अर्जुनको थी नही। इसलिये वह धर्म, पाप, कुलसहार, वर्णसकर, नरक- वासका भय आदि वाते पेश करने लगा, धर्म एव नीतिशास्त्रके पन्नेके