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अर्जुनकी मानवीय कमजोरियां १३३ . (११।३३), "निमित्तमात्र भव” (११२३३), "युध्यस्व" (११३३४), "मत्कर्मपरमो भव" (१२।१०), "न हिनस्त्यात्मनात्मानम्” (१३।२८), "मा शुच "(१६।५), "कर्म कर्तुमिहार्हसि" (१६।२४), "कर्म न त्याज्य" (१८३), "न त्याज्य कार्यमेव" (१८।५), "कर्माणि कर्त्तव्यानि" (१८६), "कर्मण सन्यासोनोपपद्यते” (१८७), "न हन्ति न निवध्यते” (१८।१७), "ससिद्धिं लभते' (१८।४५), "स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य" (१८।४६), "स्वधर्म श्रेयान्” (१८।४७), "कर्मकुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्" (१८।४७), "सहज कर्म न त्यजेत्” (१८।४८), "न श्रोष्यसि विनश्यसि” (१८।५८), "यदहकारमाश्रित्य न योत्स्य' (१८५६), "प्रकृतिस्त्वा नियोक्ष्यति" (१८५६), "करिष्यस्यवशोऽपि तत्” (१८।६०), "करिष्ये वचन तव" (१८९७३) इत्यादि । इन उद्धरणोसे स्पष्ट है कि पचास वारसे ज्यादा अर्जुनपर ललकार पडी है। शायद ही कोई अध्याय है जिसमे यह वात नही आई है । गीतामे ककी ललकार ओतप्रोत है-यह कर्मकी ललकार गीताकी रग-रगमे भिनी हुई है और कर्मयोग उसका प्राण है। अर्जुनकी मानवीय कमजोरियाँ यो तो दूसरे अध्यायके ३३-३६ श्लोकोमे, मानव स्वभावकी कम- जोरियोको समझके ही, अर्जुनको खूब ही ललकारा है कि मुंहमे कालिख पुत जायगा, यदि पीछे हटे, लोग धिक्कारेंगे; हटनेसे तो मरना कही बेहतर है, शानकी मौत बेइज्जतीकी गद्दीसे लाख दर्जे अच्छी है, आदि आदि। ३७वेमे भी कह दिया है कि तुम्हारे तो दोनो ही हाथोमे लड्डू है-हारो तो शान तथा स्वर्ग और जीतो तो राजपाट | इसलिये हर्गिज मुंह न मोडो। असलमे विवेक और अध्यात्मवादकी अपेक्षा यही बाते मनुष्य को स्वभावत उत्तेजित करके कर्त्तव्य पथमे खामखा जुटा देती है। गीता इसे बखूबी जानती है और इसपर जोर भी उसने इसीलिये दिया है। . .