१३० गीता-हृदय कहा है कि यह अदृष्ट कारण कोई स्वतत्र या करामाती चीज नहीं है । उसका काम है दृष्ट कारणोको जुटाने में ही सहायक होना--"अदृस्य- दृष्टसम्पादनेनैव चारितार्थ्यात्"। यह अदृष्ट, दैव या प्रारब्ध दूसरा कुछ नहीं करता यह नही होगा कि सूत, जुलाहा, करघा आदि सभी प्रत्यक्ष कारण जुटे हो तो भी अदृष्टके करते कपडेके तैयार होनेमें देर लगेगी। अव अगर हम इस दार्शनिक विचारपर गौर करते है तो कर्मवादकी सारी दिक्कते दूर हो जाती है । ईश्वरवादके ही सिलसिलेमें यह बात कही जानेके कारण इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। यदि ऐसा न मानें तो बडी गडबड होगी और रसोई बनानेवाला चावल, पानी, लकडी, आग, चूल्हा, बर्तन वगैरह रसोईके सभी सामानोको जुटाके भी भाग्यका मुँह देखता बैठा रहेगा। फलत सभी जगह गडबडझाला हो जायगा। पाचक महाशय अदृष्ट महाराजकी बाट जोहते रहेंगे। मगर उनका दर्शन होगा ही नही | और तटस्थ दुनिया कहेगी कि यह कैसो मूर्खताकी बात है अदृष्टका सिद्धान्त ! इसमे तो कोई अक्ल मालूम होती ही नहीं। इसीलिये दार्शनिक नैयायिककी हैसियतसे उदयनाचार्यने बहुत ही सुन्दर समाधान करके सारा झमेला ही मिटा दिया। यह भी नहीं कि अदृष्टका अर्थ केवल पूर्व कर्म, दैव या प्रारब्ध ही हो। अदृष्टका अर्थ है जो न दीखे- जो प्रत्यक्ष न हो। इसलिये ईश्वर, उसकी इच्छा वगैरह जो भी ऐसे कारण माने जाते है सभी इसमे आ गये और सभीका समाधान उदयनाचार्यने किया है। क्योकि दलील तो सभीके लिये एक ही है और गडबड भी वही एक ही है। हाँ, तो इस सिद्धान्तके अनुसार यदि हम देखते है तो हमें कोई गडवड नही मालूम होती। मजदूरोकी लडाईके सिलसिले में हडतालका मौका आनेपर सारी तैयारी हो गई और मजदूर लडने जा रहे है या लड रहे है, इस विश्वासके साथ कि विजय होके ही रहेगी। इसी बीच भाग्यवादी
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