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१२८ गीता-हृदय उनका जन्म बताया गया है। दूसरे अध्याय के "बुद्धिययतो जहातीह" (५०) श्लोकमें पुण्य-पापका जिक्र है। इधर-उधरके ग्लोकोमे भी यही वात है । इस तरह गोतामे जाने कितनी ही जगह यही बात पाई जाती है । इ पलिये यह तो मानना ही होगा कि भाग्य और भगवानका दखल उस दुनियाके भौतिक कार्योमे गीताको भी मान्य है। वात तो कुछ ऐमी ही मालूम पड़ती है और अगर इसपर कुछ ज्यादा खोद-विनोद न किया जाय तो इमी नतीजेपर पहुंचना अनिवार्य हो जायगा। यह ठीक है कि ऐसा होनेपर भी हमारा पलका मन्तव्य ज्योका त्यो रह जाता है। क्योकि यह जो कर्मवादकी बात अभी-अभी ही गई है वह तो गीताधर्म है नहीं-वह गीताकी अपनी चीज नहीं है । इसके बारेमे तो अधिकसे अधिक इतना ही कह गकते है कि मामान्यत उस समयके ममाज और शाम्यमे जो कुछ कर्म-सम्बन्धी वाते और धारणाये प्रचलित थी, जो सिद्वान्त पामतौरसे इस सम्बन्धमे माने जाते थे, उन्हीको अक्षरम अनुवाद करके गीताने लिख दिया है। ऐसा करनेमे उमका प्रयोजन कुछ न कुछ है । वावजूद इन मभी वातोके योग और ज्ञानके श्रायय लेनेपर मनुष्य बन्धनरहित हो जाता है, यही बात दिसलाने और योग, ज्ञान या भक्तिके मार्गके महत्त्वको बतानेके ही लिये उन कर्मफलो और विविध गतियोका उल्लेख गीता करती है, जो आस्तिक समाजमें प्रचलित थी और है । गीताका उनके अनुमोदन या उनकी यथार्थतामे कोई ताल्लुक नही है । यह उसका ध्येय हई नहीं। यदि उन प्रसगो और पूर्वापर विचारोको देखा जाय तो यह बात साफ हो जायगी। गीताके श्लोकार्थके समय हम भी यह बात साफ दिखायेगे। इसके विपरीत गीताधर्मके नामसे जो कुछ हमने कहा है और जिसका उल्लेख सग्रहवे अध्यायमें पाया है वह गीताकी निजी चीज है, अपनो देन है। द्वितीय अध्यायवाले योगको जिस प्रकार हम गीताधर्म मानते है