१२४ गीता-हृदय की दृष्टिका तो यही मतलव है कि विना किमी प्रयोजन और खयालके ही हम असलियत एव वस्तुस्थितिका पता लगाना चाहते है । जैमा कि नये-नये गहोका पता लगाते है । इममे कोई मास प्रयोजन तो है नहीं । यह काम तो मृप्टिकी अमलियतकी जानकारीके ही लिये किया जाता है। यह भी नहीं जानते कि इन अनन्त ग्रहो और उपग्रहोकी कौनसी जरुरत इस नृप्टिके काम मे है। फिर भी उनका और इनकी गति आदिका पता भी लगाते ही है। उनके बारेमे वाद-विवाद चलना है और पोयो- पोये भी लिखे जाते है। यही है सैद्वान्तिक दृष्टि । यदि इन दृष्टिसे धर्म और ईश्वरका विरोव मार्मको इप्ट होता तो फिर भौतिक द्वन्द्ववादकी बात इम मिलमिलेमे छेडनेका प्रश्न ही कहां होता? यह दृष्टि तो ईश्वरके विरोधका प्रयोजन बताती है । अर्थात् मार्म किमी नास प्रयोजनमे ही उमका विरोध करता है । न कि ईश्वर मचमुच हई नहीं, केवल इस सैद्धा- न्तिक दृष्टिसे । बल्कि इम मैद्रान्तिक दृप्टिका नो वह पक्का विरोधी है। इसमे तो वह अराजकतावाद और अवसरवादको गव पाता है। इसीलिये उसका सरत विरोध भी करता है। क्योकि ये दोनो वाद मार्क्सवादके विरोधी तथा वर्गसंघर्पके घातक है। इसमे तो यह भी सिद्ध हो जाता है कि वस्तुत धर्म या ईश्वर हई नहीं, यह बात माक्र्म या मार्क्सवादकी नही है, इस पचडेमे वह नही पडता। भौतिक द्वन्द्ववादको दृष्टिके इस लम्बे विचारने, हमे विश्वास है, मानर्मवादके इस पहलूको काफी साफ कर दिया है। धर्म, सरकार और पार्टी 1 अव हमे फिर गीताके धर्मको ही देखना है। जव, जैसा कि पहले ही बता चुके है, धर्म गीताके अनुसार नितान्त वैयक्तिक या व्यक्तिगत (शख्सी-personal) चीज है, तो न मिर्फ इसमे या इसके नामपर
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