गीता-हृदय चलाना जवतक वे सीख न जाये तबतक पूँजीवादके नीचे सख्त मिहनत ही जिनके पल्ले पडी है उन लोगोके दिमागसे कोई भी पढने-लिखनेको किताव इस धर्मको जडमूलसे निकाल नहीं सकती है।" लेनिनके ये उद्धरण इसलिये महत्त्व रखते है कि वह इस वातपर जोर देते है कि धर्मके खडन-मडनके झमेलेमे पड़ने के बजाय शोषितोका वर्गसंघर्प ही खूब सगठित रूपसे वरावर चलाना और उनमें वर्गचेतना पैदा करना यही बुनियादी चीज है। वह वात नही चाहता, काम चाहता था। उसकी आँखे तो वडी तेज थी। वह बहुत ही दूरतक देखता था। उसने समझ लिया कि धर्म और ईश्वरके खडन-मडनकी वितडामे पडके जनसेवक लोग कहीके न रहेंगे-भटक जायेगे। काम तो इससे कुछ होगा नहीं। केवल अक्लकी बदहजमी मिटेगी। हां, सीधे-सादे जन- साधारण विरोधी जरूर हो जायेंगे। धर्मध्वजी-धर्मके ठेकेदार- उन्हें जनसेवको और क्रातिकारियोके खिलाफ आसानीसे भडका देंगे। क्योकि तर्क दलीलोकी पेचीदगी तो वे समझ पायेंगे नहीं। इधर मुल्ले लोग अपनी चिकनी-चुपडी वाते आसानीसे समझाके उन्हें विरोधी बना देंगे। यदि नास्तिक और वर्मविरोधी लोग अपनी दलीलके साथ-साथ गरीवोकी कोई ठोस भलाई कर पाते और धर्मध्वजी लोग नहीं कर सकते, तो बात दूसरो होता । क्योकि तव तो जनसाधारण प्रासानीसे समझ जाते कि हो न हो यही हमारा मित्र है। धर्मके विरुद्ध वोलता है तो क्या काम तो हमाराही करता है न ? यदि दो-चार लात मारके भी गाय काफी दूध दे, तो बुरा कौन माने ? यही वजह है कि लेनिन उस संघर्षपर ही जोर देता है जिससे जनताको लाभ होता है और वह खिंच पाती है। लडाई ही ऐमी चीज है जो उसे अपनी ओर खीच लेती है। एक बात और है । जव जनता दिमागी बारीकियोको समझ पाती ही नहीं और हमें उमीको समझाके उठाना है, तो ऐसा क्यो न करे कि ? N
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