६२ गीता-हृदय देखती है। वह तो इग वातकी जांच-पडताल करती है कि जिससे किसी भी कर्मकी प्रागा की जाती है उमका स्वभाव कैसा है। आसिर सियार, हाथी और मिहका स्वभाव तो एकसा है नहीं। इसीलिये उनके काम भी एकमे नहीं है । यदि स्वभावका सयाल न करके "सब धान काईस पमेरी" नौला जाय और गीदडमे सिंहके कामको श्रागा की जाय तो सिवाय नादानी और निरागाके और होगा ही क्या ? इसीलिये गीता सबसे पहले स्वभाव देखती है । वह स्वभावके मूलमे भी गुणोको देखती है जो शुरुमे ही गरीर- रचनामे गामिल हुए थे। क्योकि स्वभावके नामपर गउवड हो सकती है और कोगिगगे मिम्बा-पढाके थोडे समयके लिये कोई भी किसी कामके निये तैयार किया जा सकता है कोई भी "ठोक-पटके तत्काल वैद्यराज" बनाया जा सकता है और स्वभाव नाम इस वातको भा दिया जा सकता है। आखिर पहचान हई क्या? इमीलिये गीता मूल-भूत गुणोको ही पकडनी है जो कृषिम नही है । फलत कल्पित या चन्दरोजा चीज कवतक टिक सकेगी? माराग यह कि, वहुत गोरसे दीर्घ कालतक पर्यावेक्षणके बाद ही स्वभावका निश्चय होता है, ऐमो वात गोताको मान्य है । उसके बाद ही उमीके अनुसार कर्म कराया जाना—किया जाना चाहिये, ऐसी मान्यता नीताकी है और अन्ततोगत्वा वर्णोका अन्तिम निश्चय उनीमे होता है। महाभारतमें लिया है कि पहले कोई वर्ण न थे----गव एक ही ममान थे, पीछे स्वाभाविक कर्मोके अनुसार ही वर्ण बने । ज्यादेमे ज्यादा यही कि मभी ब्राह्मण ही ये-पीछे वर्ण विभाग हुअा-"न विशे- पोऽस्ति वर्णाना सर्व ब्राह्ममिद जगत् । ब्रह्मणा पूर्व गृप्ट हि कर्मभिर्वर्णता गतम्" (मोलवर्म १८८।१०)। फिर वर्णीका विवरण भी दिया है। उनगे भी यही बात सिद्ध होती है। उन तरह हमने देखा कि गीता कमाने वाँको पकड़ने के बजाय गणोके अनुसार बने स्वभावने ही कमोंको पकडना उचित समझती है।
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