स्वाभाविक क्या है? इसीका उत्तर "स्वभावप्रभवर्गुणै"मे दिया गया है। गीता तो कहती है कि धर्मकी बात भेडो जैसी अन्य परम्पराकी नही है कि फलाँ ब्राह्मण है, तो फलाँ क्षत्रिय । यह कोई निश्चित और ववी बवाई वात नहीं है, कि फलाँ ब्राह्मण हई, या होगाही और फलाँ क्षत्रिय, जैसा कि आज माना जाता है। आज तो हालत यह है कि कर्म भी नहीं देखे जाते । किन्तु एक तरहकी दूकानदारी ब्राह्मणादि वर्णवर्मोके नामपर चल पड़ी है। मगर इस वर्तमान परम्पराकी जडमे भी यही बात थी कि कर्मोमे ही ब्राह्मणादिको जानते या पकडते थे-पकड़ने लगे थे। इसका आनय यह है कि कर्मोकी एक परम्परा और प्रणालो जारी कर ी गई थी और चपनसे ही वही कर्म (काम) कराये जाते थे। किसीके स्वभावकी परीक्षा न की जाती थी। माता-पिताको जान लिया और पता पा लिया कि उन्हींसे बच्चा पैदा हुआ है । फिर क्या था? माता-पिताके हो वर्णके अनुसार वच्चेके कर्म-धर्म ठीक कर दिये गये और इस प्रकार समय पाके वही ब्राह्मण, भत्रियादि बना जैसा कर्म करता रहा। मा-बापका भी वर्ण इसी प्रकार उनके मा-बापके ही आधारपर कर्म कराके ठीक किया जाता था। यही शैली थो, यही प्रणाली थी। इसमें कर्मपर ही जोर था, दारमदार था । यही कारण है कि विश्वामित्रको ब्राह्मण माननेमे दिक्कतें पेग आई। क्योकि माता-पिताकी वात उनके बारेमे कुछ दूसरी ही थी। मगर इसमे इतनी तो वात थी कि कर्मोपर जोर था। फलत. जिसमें कर्म न हो वह वर्णच्युत और पतित हो जाता था-वह "धोबीका कुत्ता न घरका न घाटका" माना जाता था। मगर आज तो इतना भो नहीं है । आज तो केवल मा-बापसे जन्म ही काफी है ब्राह्मणादि वननेके लिये! मगर गीताके अनुसार तो उलटी बात थी, उलटी बात होती है, उलटी वात चाहिये । गीता तो कर्मके पहले मा-वापसे उत्पत्तिको न देख स्वभाव
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