धर्म स्वभावसिद्ध है ८६ भी न जायगा। तीसरा कुछ और करेगा और चौथेकी निराली ही दशा होगी। यही बात रोजा-नमाजमे भी होगी। धर्म स्वभावसिद्ध है सत्रहवे अध्यायके जिस दूसरे श्लोकको पहले उद्धृत किया है उसमे श्रद्धाको स्वभावसिद्ध "स्वभावजा" कहा है। वह कृत्रिम चीज नही है। डर, भय आदिको तो दबाव डालके या प्रलोभनसे पैदा भी कर सकते है। मगर इन उपायोसे श्रद्धा कभी उत्पन्न की जा सकती नही और वही है धर्मके स्वरूप को ठोक करनेवाली असल चीज । वहाँ और उसके पहले समूचे चौदहवे अध्यायमे तथा और जगह भो ऐसा प्रतिपादन किया गया है कि सत्त्व, रज और तम इन तोन गुणोके ही अनुपार श्रद्धा आदि दिव्यगुण मनुष्योमे पाये जाते है। हममे किसीकी शक्ति भी नहीं कि उन गुणोको डरा धमकाके या दबाव डालके बदल सके । शरीर, इन्द्रियादिके निर्माणमे जो गुण जहाँ जिस मात्रा में आ गया वह तो रहेगा ही। हम तो अधिकसे अधिक यही कर सकते है कि समय समयपर दबे रहने या न मालूम होनेपर उसे प्रकट कर दे, जैसे पखेके जरिये हवा पैदा नही की जाती, किन्तु केवल प्रकट कर दा जाती है । हवा रहती तो है सर्वत्र । मगर मालूम नही पडती और पखा उसे मालूम करा देता है, विखरी हवाको जमा कर देता है। और स्वभाव तो लोगोके भिन्न होते ही है। इसीलिये हरेकके धर्म भी भिन्न ही होगे। दोके भी धर्मों का कभी मेल हो नहीं सकता। इतना ही नही। अठारहवे अध्यायके ४१-४४ श्लोकोमे दृष्टान्त- स्वरूप चारो वर्णोके कर्मों और धर्मोका विस्तृत वर्णन है । लेकिन यह कितनी विचित्र बात है कि चारोके धर्मोको अलग-अलग गिनानेके साथ- साथ स्वभावज' स्वाभाविक या स्वभावसिद्ध-यह विशेषण चार बार
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