गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । अर्थात् कर्मयोग शास्त्र" है, जो कि इस गीता का विषय है। ब्रह्मविद्या और ब्रह्मा- ज्ञान एक ही बात है और इसके प्राप्त हो जाने पर ज्ञानी पुरुष के लिये दो निष्ठाए या मार्ग खुले हुए हैं (गी.३.३)। एक सांख्य अथवा संन्यास मार्ग अर्थात् वह मार्ग जिसमें, ज्ञान होने पर, कर्म करना छोड़ कर विरक्त रहना पड़ता है और दूसरा योग अथवा कर्ममार्ग अर्थात् वह मार्ग जिसमें, कर्मों का त्याग न करके, ऐसी युक्ति से नित्य कर्म करते रहना चाहिये कि जिससे मोक्ष प्राप्ति में कुछ भी बाधा न हो। पहले मार्ग का दूसरा नाम 'ज्ञाननिष्टा भी है जिसका विवेचन उपनिषदों में अनेक अपियों ने और अन्य ग्रंथकारों ने भी किया है। परन्तु ब्रह्म- विद्या के अन्तर्गत कर्मयोग का या योगशास्त्र का तात्विक विवेचन भगवद्गीता के सिवा अन्य अन्यों में नहीं है। इस बात का उल्लेख पहले किया जा चुका है कि अध्याय-समाप्ति-दर्शक संकल्प गीता की सब प्रतियों में पाया जाता है और इससे. प्रगट होता है कि गीता की सब टीकाओं के रचे जाने के पहले ही उसकी रचना हुई होगी । इस संकल्प के रचयिता ने इस संकल्प में ब्रह्मविद्यायां योग- शास्त्रे' इन दो पदों को व्यर्थ ही नहीं जोड़ दिया है, किन्तु उसने गीताशास्त्र के प्रतिपाद्य विषय की अपूर्वता दिखाने ही के लिये उक्त पदों को उस संकल्स में आधार और हेतु सहित स्थान दिया है। अतः इस बात का भी सहज निर्णय हो सकता है कि, गीता पर अनेक सांप्रदायिक टीकाओं के होने के पहले, गीता का तात्पर्य कैसे और क्या समझा जाता था। यह हमारे सौभाग्य की बात है, कि इस कर्मयोग का प्रतिपादन स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ही ने किया है, जो इस योगमार्ग के प्रवर्तक और सव योगों के साक्षात् ईश्वर (योगेश्वर योग+ ईश्वर) हैं और लोकहित के लिये उन्होंने अर्जुन को उसका रहस्य बतलाया है। गीता के योग' और 'योग- शास्त्र' शब्दों से हमारे 'कर्मयोग ' और कर्मयोगशास्त्र ' शब्द कुछ बडे हैं सही; परंतु अव हमने कर्मयोगशास्त्र सरीखा बड़ा नाम ही इस अन्य और प्रकरण को देना इसलिये पसंद किया है कि जिसमें गीता के प्रतिपाद्य विपय के सम्बन्ध में कुछ भी संदेह न रह जावे । एक ही कर्म को करने के जो अनेक योग, साधन या मार्ग है उनमें से सर्वोत्तम और शुद्ध मार्ग कॉन है। उसके अनुसार नित्य आचरण किया जा सकता है या नहीं; नहीं किया जा सकता, तो कौन कौन अपवाद उत्पन्न होते हैं और वे क्यों उत्पन्न होते है जिस मार्ग को हमने उत्तम मान लिया है वह उत्तम क्या है जिस मार्ग को हम बुरा समझते हैं वह युरा क्यों है यह अच्छापन या खुरापन किसके द्वारा या किस आधार पर ठहराया जा सकता है। अथवा इस अच्छेपन या बुरेपन का रहस्य क्या है, इत्यादि वात जिस शास्त्र के आधार से निश्चित की जाती है उसको " कर्मयोगशास्त्र " या गीता के संक्षिप्त रूपानु- सार “ योगशास्त्र " कहते हैं। 'अच्छा' और 'बुरा' दोनों साधारण शब्द इन्हीं केसमान अर्थ में कभी कभी शुभ-अशुभ, हितकर-अहितकर, श्रेयांकर-मश्रेयस्कर,
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