पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/९३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । अर्थ के समान ही होना चाहिये। अर्थात् उसका यही अर्थ लेना उचित है कि " हे अर्जुन! तू युक्ति से कर्म करनेवाला योगी अर्थात् कर्मयोगी हो।" क्योंकि यह कहना ही सम्भव नहीं कि “त् पातञ्जल योग का आश्रय ले कर युद्ध के लिये तैयार रह !" इसके पहले ही साफ़ साफ़ कहा गया है कि " कर्मयोगेण योगि- नाम् " (गो. ३.३) अर्थात् योगी पुरुष कर्म करनेवाले होते हैं । महाभारत के (मभा. शां. ३४८.५६ ) नारायणीय अथवा भागवतधर्म के विवेचन में भी कहा गया है कि इस धर्म के लोग अपने कर्मों का त्याग किये बिना ही युक्तिपूर्वक कर्म करके (सप्रयुफेन कर्मणा) परमेश्वर की प्राप्ति कर लेते हैं । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 'योगी' और 'कर्मयोगी, दोनों शब्द गीता में समानार्थक हैं और इनका अर्थ “युक्ति से कर्म करनेवाला" होता है । तथा बड़े भारी कर्मयोग' शब्द का प्रयोग करने के बदले, गीता और महाभारत में, छोटे से 'योग' शब्द का ही अधिक उपयोग किया गया है । " मैंने तुझे जो यह योग बतलाया है इसी को पूर्वकाल में विवस्वान् से कहा था (गी. ४. १); और विवस्वान् ने मनु को बतलाया था; परन्तु उस योग के नष्ट हो जाने पर फिर वही योग आज तुझसे कहना पड़ा। इस अवतरण में भगवान् नै जो 'योग' शब्द का तीन वार उच्चारण किया है उसमें पातंजल योग का विवक्षित होना नहीं पाया जाता; किन्तु " कर्म करने की किसी प्रकार की विशेप युक्ति, साधन या मार्ग" अर्थ हो लिया जा सकता है। इसी तरह जब संजय कृष्ण-अर्जुन-संवाद को गीता में योग' कहता है (गी. १८.७५) तत्र भी यही अर्थ पाया जाता है। श्रीशंकराचार्य स्वयं संन्यास-मार्गवाले थे तो भी उन्होंने अपने गीता-भाज्य के नाम में ही वैदिक धर्म के दो भेद-प्रवृत्ति और निवृत्ति बतलाये हैं और 'योग' शब्द का अर्थ श्रीभगवान् की की हुई व्याख्या के अनुसार कभी " सम्यग्दर्शनोपायकर्मानुष्टानम् " (गी. ४ ४२) और कभी “ योगः युक्तिः " (गो. १०.७) किया है । इसी तरह महाभारत में भी 'योग' और 'ज्ञान दोनों शब्दों के अर्थ के विषय में सष्ट लिखा है कि “ प्रवृत्तिलक्षणो योगः ज्ञानं संन्यासलक्षणम्" (मभा. अध. ४३, २५) अर्थात् योग का अर्थ प्रवृत्तिमार्ग और ज्ञान का अर्थ संन्यास या निवृत्तिमार्ग है । शान्तिपर्व के अन्त में नारायणीयोपल्यान में 'सांख्य' और 'योग' शब्द तो इसी अर्थ में अनेक वार आये हैं और इसका भी वर्णन किया गया है कि ये दोनों मार्ग सृष्टि के आरंभ में क्यों और कैसे निर्माण किये गये (मभा. शा २४० और ३८) । पहले प्रकरण में महाभारत से जो वचन उद्दत किये गये हैं उनसे यह स्पष्टतया मालूम हो गया है कि यही नारायणीय अथवा- भागवतधर्म भगवतीता का प्रति- पाद्य तथा प्रधान विषय है । इसलिये कहना पड़ता है कि 'सांख्य ' और 'योग' शब्दों का जो प्राचीन और पारिभाषिक अर्थ (सांख्य = निवृत्ति; योग - प्रवृत्ति) नारायणीय धर्म में दिया गया है वही अर्थ गीता में भी विवक्षित है। यदि इसमें किसी को शंका हो तो गीता में दी हुई इस व्याख्या से.