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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र ।

है। इसी लिये हमने गोता की समस्त टीकामों और भाष्यों को लपेट कर घर दिया; और केवल गीता के ही स्वतन्त्र विचारपूर्वक कक पारायण किये । ऐसा करने पर टीकाकारों के चंगुल से छूटे और यह बोध हुआ कि नीता नित्ति प्रधान नहीं है; वह न कर्म-प्रधान है। और अधिक क्या कहें, गीता में बोला 'योग' शब्द ही 'कर्मयोग ' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । महाभारत, वेदान्तसूत्र, उपनिषद और वेदान्तवानविषयक अन्यान्य संहा त्या अंग्रेजी भाषा के अन्यों के अध्ययन से भी यहां नत दृढ़ होता गया और चार पाँच स्थानों में इसी विषय पर व्याख्यान इस इच्छा से दिये कि सर्वसाधारण में इस विषय को छेड़ देने से अधिक चर्चा होगी एवं सस नल का निर्णय करने में, लौर भी मुविधा हो जायगी । इनमें से पहला व्याख्यान नागपुर में जनवरी सन् १९०२ में हुआ और दूसरा सन् १९०४ ईश्वी के अगस्त महीने में, करवीर एवं संकेवर नठ के जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य की आदत से, उन्हीं की उपस्थिति में, संस्वर मा में हुआ था । उस समय नागपुरखाले व्याख्यान का विवरण भी समाचारपत्रों में प्रकाशित हुआ था । इसके अतिरिक्त, इसी विचार से, जय जव समय मिलना गया तय तक कुछ विद्वान् मित्रों के साथ समय- समय पर वाद-विवाद भी च्यिा । इन्हीं निनों में स्वगर श्रीरात वाया भिंगारकर थे। इनचे सहवास से भागवत मन्प्रदाय के कुछ प्रान्त प्रन्य देखने में भाये; और गीता- रहत्त्व में वर्णिन कुछ बातें तो आपके और हमारे वाद विवाद में ही पहले निश्चिंत हो चुकी थी। यह बड़े दुःख की बात है कि आप इस ग्रन्य को न देख पाये। अस्तु; इस प्रकार यह मत निश्चित होगया कि गीता का प्रतिसाय विषय प्रवृत्ति प्रधान है, और इसको लिख कर ग्रन्पल में प्रकाशित करने का विचार किये नी भनेक वर्ष बीत गये। वर्तमान समय में पाये जानेवाले मायोकाओं,और मनुवादों में जो गीत-तापर्यवीत नहीं हुआ है, केवल उसे ही यदि पुस्तकता से प्रकाशित कर देते, और इसका कारण न चलाते कि प्राचीन बीचकारों का निश्चित किया हुआ कार्य हमें प्राण क्यों नहीं है, तो बहुत सन्न्त्र या कि लोग कुछ का कुछ समझने लग जाते-उनको अम हो जाता। और समस्त टोकाचारों के नतों का संग्रह करके उनको सकारण अपूर्णता दिखला देना, एवं अन्य धनों त्यानवान के साथ गर्माता-धर्म की तुलना करना कोई ऐसा साधारण काम न था, जो प्रतापूर्वक ऋपट हो जाय। अबएव यद्यपि हमार नित्र श्रीयुत दाजी साहव तरे और दादासाहव खाडे ने मुझे पहले ही यह प्रकाशित कर दिया था कि हम गीता पर एक नवीन अन्य शीन ही प्रसिद्ध कावाले व्यापिटल लिखने का दान इस स्नम रे उछला गया कि हमारे समाप दो सदनों है, वह बनी अपूर्ण है डर सन् १९०८ ईली में, देल,हम नाले में दिये गये, तर इस सत्य के लिट जी माता बहुत कुछ घट गई थी कि समय में, ग्रम सिखने के