गीता, मनुवाद और टिप्पणी-१८ अध्याय । ८४६ न च तस्मान्मनुष्येपु फश्चिम प्रियकृत्तमः । भचिता न च में तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ।। ६९।। अभ्यते न य इमं धम्य संचादमाचयोः । शानयझेन तनामिटः स्यामिति मे मतिः ॥ ७० ॥ श्रदायाननस्यश्च शृणुयादपि यो नरः । सोऽपि मुक्तः शुभाल्लोकाम्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥ ७१ ॥ फशिंदतच्छुतं पार्थ स्वयकाग्रेण चेतता । फचिदशानसंमोहः प्रगटस्ते धनंजय ॥ ७२ ॥ अर्जुन उवाच । नधी मार स्मृत्तिलम्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव ॥७३॥ धार पर निरन्देश मुझमे भी मा मिनेगा। (६) उसकी अपेक्षा मेरा प्राधिक प्रिय परनपामा सण मनुष्पों में दुसरा कोई भी म मिलेगा तथा इस भूमि में मुझे उसनी अशा राधिक प्रिय मोर फोई नहोगा। 1 [परम्परा को रचा के इस उपदेश के साथ ही अब फज यतलाते हैं- (७०) म दोनों के इस धर्मवाद का जो कोई अध्ययन करेगा, मैं समझूगा कि नपने शागर से मेरी पूजा की । (७१) इसी प्रकार दोष न हूँद कर श्रद्धा के साथ कोई इसे सुनेगा, यह भी (पापों से) मुर होकर उन शुभ लोकों में जा पहुंचेगा कि जो पुण्यवान् लोगों को मिलते हैं। [गहा उपदेश समाप्त हो चुका । अम यह जाँचने के लिये कि यह धर्म अर्जुन की समझ में ठीक ठीक प्रा गया है या नहीं, भगवान् उससे पूछते हैं-] (७२) ई पार्थ ! तुमने इसे पकाम मन से सुन तो लिया है न? (और) हे धनाय! तुम्हारा मज्ञानरूपी मोह प्रप सर्वया नष्ट हुमा फि नही? शन ने कक्षा-(०३) है अच्युत ! तुम्हारे प्रसाद से मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे (फत्तंप्य धर्म की) मति हो गई। मैं (अय) निःसन्देह हो गया हूँ। थाप उपदेशानुसार (युद) करूँगा। [जिनकी साम्प्रदायिक समझ यह है कि गीताधर्म में भी संहार को छोड़ देने का सपदेश किया गया है, उन्होंने इस अन्तिम अर्थात् ७३वें श्लोक की बहुत कुछ निराधार खींचातानी की है। यदि विचार किया जाय कि अर्जुन को किस यात की विस्मृति हो गई थी, तो पता लगेगा कि दूसरे अध्याय (२.७) में उसने कहा है कि अपना धर्म अथवा कत्र्तव्य समझने में मेरा मन असमर्थ क्षी गया है" (धर्मसंमूळचेताः) । अतः उक्त श्लोक का सरल अर्थ यही है कि उसी गी.र, १०७
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