८४८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन । न चाशुश्रुषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥ ६७ ॥ य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेम्वमिधास्यति । भक्ति मयि परां कृत्वा मामेवैग्यत्यसंशयः॥ ६८ ॥ [कोरे ज्ञानमार्ग के टीकाकारों को यह भक्ति प्रधान उपसंहार प्रिय नहीं लगता । इसलिये वे धर्म शब्द में ही अधर्म का समावेश करके कहते हैं कि यह श्लोक कठ उपनिषद् के इस उपदेश से ही समानार्थक है कि " धर्म-अधर्म, कृत धकृत, और भूत-भव्य, सब को छोड़ कर इनके परे रहनेवाले परब्रह्म को पह- चानो" (कठ. २. १४) तथा इसमें निर्गुण ब्रह्म की शरण में जाने का उपदेश है। निर्गुण ब्रह्म का वर्णन करते समय कठ उपनिषद् का श्लोक महाभारत में भी आया है (शां. ३२६. ४०,३३१.४४)। परन्तु दोनों स्थानों पर धर्म और अधर्म, दोनों पद जैसे स्पष्टतया पाये जाते हैं वैसे गीता में नहीं हैं। यह सच है कि गीता निर्गुण ब्रह्म को मानती है, और उसमें यह निर्णय भी किया गया है कि परमेश्वर का वही स्वरूप श्रेष्ठ है (गी.७.२४); तथापि गीता का यह भी तो सिद्धान्त है कि च्यतोपासना सुलभ और श्रेष्ठ है (१२.५) । और यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अपने न्यक्त स्वरूप के विषय में ही कह रहे हैं। इस कारण इमारा यह दृढ़ मत है कि यह उपसंहार भक्तिप्रधान ही है । अर्थात् यहाँ निर्गुण ब्रह्म विवक्षित नहीं है, किन्तु कहना चाहिये कि यहाँ पर धर्म शब्द से परमेश्वर-प्राप्ति के लिये शास्त्रों में }जो अनेक मार्ग बतलाये गये हैं, जैसे अहिंसा-धर्म, सत्यधर्म, मातृ-पितृ-सेवा- धर्म, गुरु-सेवा-धर्म, यज्ञ-याग-धर्म,दानधर्म, संन्यासधर्म आदि-वही अभिप्रेत हैं । महाभारत के शान्तिपर्व (३५४) में एवं अनुगीता (अश्व. ४) में जहाँ इस विषय की चर्चा हुई है, वहाँ धर्म शब्द से मोक्ष के इन्हीं उपायों का उल्लेख किया गया है। परन्तु इस स्थान पर गीता के प्रतिपाद्य धर्म के अनुरोध से भग- वान् का यह निश्चयात्मक उपदेश है कि टक्क नाना धर्मों की गड़बड़ में न पड़ कर "मुझ अकेले को ही मज, मैं तेरा उद्धार कर दूंगा, ढर मत" (देखो गीतार- .४४०)। सारं यह है कि अन्त में अर्जुन को निमित्त बना कर भगवान् सभी को आश्वासन देते हैं कि, मेरी हड़ भक्ति करके मत्परायण बुद्धि से स्वधर्मानुसार प्राप्त होनेवाले कर्म करते जाने पर इहलोक और परलोक दोनों जगह तुम्हारा कल्याण होगा; डरो मत । यही कर्मयोग कहलाता और सब गीताधर्म का सार भी यही है। अब बतलाते हैं कि इस गीताधर्म की अर्थात ज्ञान-मूलक भक्तिप्रधान कर्म- योग की परम्परा आगे कैसे जारी रखी जावे-] (६७) जो तप नहीं करता, भक्ति नहीं करता और सुनने की इच्छा नहीं रखता, तथा जो मेरी निन्दा करता हो, उसे यह (गुह्य) कभी मत बतलाना ! (६) जो यह परम गुह्य मेरे भकों को बतलावेगा, उसकी मुझ पर परम मार्क
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