गीतारहस्य अयथा कर्मयोगशाला FF यदहकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे । मिध्यप व्यवसायस्तै प्रकृतिस्त्वां नियोल्यति ॥ ५९ ।। स्वमावजेन कौतय निबद्धः स्वेन कर्मणा। कर्तु नेच्छसि यन्मोहात्करिम्यस्यवशोऽपि तत् ॥ ६० ॥ ईश्वरः सर्वभूतानां हद्देशेऽर्जुन तिष्ठति । ब्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया ।। ६१ ॥ तमेव शरणं गच्छ सर्वमावेन भारत । तत्मादात्पर शान्ति स्थान प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥ २॥ इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया। विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ।। ६३ ।। [५८ वें श्लोक के अन्त में अईकार का परिणाम बसलाया है। अब यहाँ उसी का अधिक स्पष्टीकरण करते हैं-] (५) अहंकार से जो यह मानता (कहता) है कि मैं युद्ध न करूंगा, (सो) तेरा यह निश्चय व्यय है। प्रकृति अर्थात् स्वभाव तुमले वह (युद्ध)करावेगा । (६०) हे कान्तय ! अपने स्वभावजन्य कर्म से बद होने के कारण, मोह के वश हो कर जिसे न करने की इच्छा करता है, पराधीन (अर्थात् प्रकृति के अधीन) हो करके तुझे वही करना पड़ेगा। (६) हे अर्जुन ! ईश्वर सब प्राणियों के हृदय में रह कर (अपनी) माया से प्राणिमात्र को (एस) घुमा रहा है मानो सभी (मिली) यात्र पर द्वाये गये हॉ। (६२) इसलिये है भारत ! तू सर्वभाव से उसी की शरण में जा । उसके अनुग्रह से तुझे परम शान्ति और नित्यस्यान प्राप्त होगा। (६३) इस प्रकार मैंने यह गुह्य से भी गुह्य ज्ञान तुमसे कहा है। इसका पूर्ण विचार करके जैसी तेरी इच्छा हो, वैसा कर। । [इन श्लोकों में कर्म-पराधीनता का जो गूढ तय बतलाया गया है, उसका विचार गीतारहस्य के १० प्रकरण में विस्तारपूर्वक हो चुका है। यद्यपि आत्मा स्वयं स्वतन्त्र है, तथापि जगत् के अर्थात् प्रकृति के व्यवहार को देखने से माजूम होता है कि उस कम के चक्र परमात्मा का कुछ भी अधिकार नहीं है कि जो अनादि काल से चल रहा है। जिनकी हम इच्छा नहीं करते, वकि जो हमारी इच्छा के विपरीत भी है, ऐसी सैकड़ों-हज़ारों बातें संसार में हुमा करती है तथा उनके व्यापार के परिणाम भी हम पर होते रहते है अथवा उक्त व्यापारों का ही कुछ भाग हमें करना पड़ता है। यदि इन्कार करते है तो बनता नहीं है। ऐसे अवसर पर ज्ञानी मनुष्य अपनी बुद्धि को निर्मज रख कर और सुख या दुःख को एक सी समझ कर सब कर्म किया करता है किन्तु मूर्ख मनुष्य उनके फड़े में फैल जाता है। इन दोनों के भावरण में
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८८५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।