८४२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । IS श्रेयान स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वभावनियतं कर्म कुर्वनाप्नोति किल्विषम् ॥ ४७ ॥ सहजं कर्म कोतेय सदोषमपि न त्यजेत् । सारंमा हि दोघेण भूमेनाग्निरिवावृताः ।। ४८ ॥ असत्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः । नैष्कर्म्यसिद्ध परमां संन्यासेनाधिगच्छति ।। ४९ ।। होनेवाला कर्तव्य किसी दूसरी दृष्टि से सदोप, अश्लाघ्य, कठिन अथवा अप्रिय भी हो सकता है। उदाहरणार्थ, इस अवसर पर क्षत्रियधर्म के अनुसार युद्ध करने में हत्या होने के कारण वह सदोष दिखाई देगा। तो ऐसे समय पर मनुष्य को क्या करना चाहिये ? क्या वह स्वधर्म को छोड़ कर, अन्य धर्म स्वीकार कर ले (गी. ३. ३५); या कुछ भी हो, स्वकर्म को ही करता जावे; यदि स्वकर्म ही करना चाहिये तो कैसे करे-इत्यादि प्रश्नों का उत्तर उसी न्याय के अनुरोध से बतलाया जाता है कि जो इस अध्याय में प्रथम (AE.६) यज्ञ-याग आदि कमों के सम्बन्ध में कहा गया है- (४७) यद्यपि परधर्म का आचरण सहन हो, तो भी उसकी अपेक्षा अपना धर्म अर्थात् चातुर्वण्र्य विहित कर्म, विगुण यानी सदेप होने पर भी अधिक कल्याण- कारक है । स्वभावसिद्ध अर्थात् गुण-स्वभावानुसार निर्मित की हुई चातुर्वगर्य- व्यवस्था द्वारा नियत किया हुआ अपना कर्म करने में कोई पाप नहीं लगता (er) है कौन्तेय ! जो कर्म सहज है, अर्थात् जन्म से ही गुण-कर्म-विमागानुसार नियत हो गया है, वह सदोष हो तो भी उसे (कमी) न छोड़ना चाहिये। क्योंकि सम्पूर्ण प्रारम्भ अर्थात् उद्योग (किसी न किसी) दोप से वैसे ही न्याह रहते हैं, जैसे कि ध्रु से आग घिरी रहती है। (४) भतएव कहाँ मी भासक्ति न रख कर, मन को वश में करके निष्काम बुद्धि से चलने पर (कर्म फल के) संन्यास द्वारा परम नैष्कार्य- सिद्धि प्राप्त हो जाती है। [इस उपसंहारात्मक अध्याय में पहले बतलाये हुए इन्हीं विचारों को अब फिर से व्यक कर दिखलाया है कि, पराये धर्म की अपेक्षा स्वधर्म भला है (गी. ३.३५), और नैष्कर्य-सिद्धि पाने के लिये कर्म छोड़ने की आवश्यकता नहीं है (गी. ३. ४) इत्यादि । हम गीता के तीसरे अध्याय में, चौथे श्लोक की टिप्पणी में ऐसे प्रश्नों का स्पष्टीकरण कर चुके हैं नैष्कर्म क्या वस्तु है और सच्ची नैष्कम्य-सिद्धि झिसे कहना चाहिये । उक्त सिद्धान्त की महत्ता इस बात पर ध्यान दिये रहने से सहज ही समझ में आजावेगी कि, संन्यासमार्गवालों की दृष्टि केवल मोक्ष पर ही रहती है और भगवान की दृष्टि मोक्ष पुर्व लोक- संग्रह दोनों पर समान ही है। लोसंग्रह के लिये अर्थात् समाज के धारणा और पोषण के निमित्त ज्ञान-विज्ञानयुक्त पुरुष, अथवा रण में तलवार का
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