पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८८०

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी - १८ अध्याय । दानमीश्वरभावश्च क्षानं कर्म स्वभावजम् ॥ ४३ ॥ रापिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् । परिचर्यात्मकं कर्म शुद्रस्यापि स्वभावजम् ॥४४ ॥ SS स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः । स्वकर्मनिरतः सिद्धि यथा चिंदति तच्छृणु ॥ ४५ ॥ यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् । स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विदति मानवः ॥४६॥ हराम करना शानियों का स्वाभाविक कर्म है । (४५) कृषि पथांव खेती, गौरक्षा यानी पशुओं को पालने का उपन और पाणिज्य अर्थात व्यापार वैश्यों का स्वभाव- जन्य फर्म है। और, इसी प्रकार, सेवा करना शुद्रों का स्वामाविक कर्म है। । [चानुर्वगर्य-स्यवस्मा स्वभावजन्य गुणा-भेद से निर्मित हुई है। यह न समझा जाय कि यह उपपत्ति पहले पहल गीता में ही बतलाई गई है। किन्तु महाभारत के वनपर्वान्तर्गत नहुप युधिष्टिर-संवाद में और द्विज-व्याध संवाद (चन. १८० और २११) में, शान्तिपर्व के भृगु-भारद्वाज-संवाद (शां.१८८) में, अनुशासनपर्व के उमा-महेश्वर-संवाद (मनु. १४३) में, और अश्वमेधपर्व (३८. ११) की अनुगीता में गुगा-भेद की यही उपालि कुछ अन्तर से पाई जाती है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि जगत के विविध व्यवहार प्रकृति के गुण-भेद से हो रहे हैं फिर सिद्ध किया गया है कि मनुष्य का यह कर्तव्य कर्म, कि किसे क्या करना चाहिये, जिस चातुर्वण्य व्यवस्था से नियत किया जाता है वह व्यवस्था भी प्रकृति के गुणभेद का परिणाम है। अब यह प्रतिपादन करते है कि उक्त कर्म रएफ मनुष्य को निष्काम धुदि से अर्थात् परमेश्वरार्पण बुद्धि से करना चाहिये, अन्यया जगत का कारवार नहीं चल सकता तथा मनुष्य के आचरण से ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है, सिद्धि पाने के लिये और कोई दूसरा अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं है-] (४५) अपने अपने (स्वभावजन्य गुणों के अनुसार प्राप्त होनेवाले) कर्मों में नित्य रत (रहनेवाला) पुरुप (उसी से) परम सिद्धि पाता है। सुनौ, अपने कर्मों में रात्पर रहने से सिद्धि कैसे मिलती है। (४६) प्राणिमात्र की जिससे प्रवृत्ति हुई है सौर जिसने सारे जगत का विस्तार किया है अथवा जिससे सब जगत व्याप्त है, उसकी अपने (स्वधर्मानुसार प्राप्त होनेवाले ) कर्मों के द्वारा (केवल वाणी प्रथया फूलों से ही नहीं) पूजा करने से मनुष्य को सिद्धि प्राप्त होती है। । [इस प्रकार प्रतिपादन किया गया कि, चातुर्वण्य के अनुसार प्राप्त होने. वाले कर्मों को निष्काम-बुद्धि से अथवा परमेश्वरार्पण-बुद्धि से करना विराट- स्वरूपी परमेश्वर का एक प्रकार का यजन-पूजन ही है, तथा इसी से सिद्धि मिल जाती है (गीतार. 4. ५३६ -४३७) । अब उक्त गुण-भेदानुसार स्वभावतः प्रास गी.र. १०६