८३६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । $$ मुक्तसंगोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः। सिद्धथसिद्धयोनिर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥२६॥ रागी कर्मफलप्रेप्सुलुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः। हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ॥ २७ ॥ अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैस्कृतिकोऽलसः। विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ॥ २८ ॥ $$ बुद्धर्मेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु । सिद्ध है, कि फलाशा के छूट जाने पर यह न समझना चाहिये कि भगला- पिछला या सारासारविचार किये बिना ही मनुष्य को चाहे जो कर्म करने की छुट्टी हो गई । क्योंकि वें श्लोक में यह निश्चय किया है कि अनुबन्धक और फल का विचार किये बिना जो कर्म किया जाता है वह तामस है, न किसाविक (गीतार. पृ.३८०-३८१ देखो)।भव इसी तत्व के अनुसार कर्ता के भेद बतलाते हैं- (२६) जिसे आसक्ति नहीं रहती, जो 'मैं' और 'मेरा' नहीं कहता, कार्य की सिद्धि हो या न हो (दोनों परिणामों के समय)जो (मन से) विकार-रहित होकर प्रति और उत्साह के साथ कर्म करता है, उसे सात्त्विक (का) कहते हैं। (२७) विषयासक, लोभी, (सिद्धि के समय) हर्प और (मसिद्धि के समय) शोक से युक्त, कर्मफल पाने की इच्छा रखनेवाला, हिंसात्मक और अशुचि कता रामस कहलाता है। (२८) अयुक्त अर्थात् चञ्चल बुद्धिवाला, असभ्य, गर्व से फूलनेवाला, ठग, नैकृतिक यानी दूसरों की हानि करनेवाला, भालसी, अप्रसन- चित्त और दीर्घस्नी अर्थात् देरी लगानेवाला या घड़ी भर के काम को महीने भर में करनेवाला का तामस कहलाता है। . । [२८ श्लोक में नैष्कृतिक (निस्+कृत-छेदन करना, काटना) शन का अर्थ दूसरों के काम छेदन करनेवाला अथवा नाश करनेवाला है। परन्तु इसके बदले कई लोग नकृतिक पाठ मानते हैं। अमरकोश में निकृत 'का मर्थ शठ लिखा हुन्मा है। परन्तु इस श्लोक में शठ विशेषण पहले आ चुका है इसलिये हमने नैष्कृतिक पाठ को स्वीकार किया है। इन तीन प्रकार के कर्तामा में से सान्त्रिक कर्ता ही भकर्ता, अलिप्त कर्ता, अथवा कर्मयोगी है। ऊपरवाले लोक से प्रगट है कि फलाशा छोड़ने पर भी कर्म करने की आशा, उत्साह और सारासार-विचार उस कर्मयोगी में वना ही रहता है । जगत् के विविध विस्तार का यह वर्णन ही अव बुद्धि, धति और सुख के विषय में भी किया जाता है। इन श्लोकों में वृद्धि का अर्थ वही व्यवसायात्मिका बुद्धि अथवा निश्चय करने वाली इन्द्रिय अमीष्ट है, कि जिसका वर्णन दूसरे अध्याय (३.५) में हो चुका है। इसका स्पष्टीकरण गीतारहस्य के छठे प्रकरण पृ. १३-१0 में किया गया है।] (२६) हे धनक्षय ! बुद्धि और धृति के भी गुणों के अनुसार जो तीन प्रकार
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