पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८७३

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । F सर्वभूतेषु येनकं भावमययमीक्षते । अविभक्तं विभक्तषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम् ॥ २० ॥ पृथक्त्वेन तु यज्झानं नानाभावान्पृथग्विधान् । वेत्ति सर्वेषु भूतषु तझानं विद्धि राजसम् ॥२१॥ यत्तु कृत्लवदेवस्मिन् कार्ये सक्तमहतुकन् । अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहतम् ॥२२॥ विचार करना हो, तो 'चोदना' और 'संग्रह दोनों का विचार करना चाहिये । इनमें से ज्ञान, और ज्ञाता (चैत्रज्ञ) के लन्नण प्रथम ही तरहवें अध्याय (३.८) म अध्यात्म दृष्टि से बतला आये हैं। परन्तु क्रियाल्पी ज्ञान का लक्षण कुछ पृथक् होने के कारण अब इस यो में से ज्ञान की और दूसरी त्रयी में से कर्म एवं कत्ती की व्याख्याएँ दी जाती हैं- (२०) जिस ज्ञान से यह नान्म होता है कि विमक्ष अथन मिन भिन्न सर प्राणियों में एक ही अविमन और अन्यय भाव यवा तत्व है उसे साविक ज्ञान जानो । (३) जिस ज्ञान से इस पृपय का बोध होता है कि समन्त प्राणिमात्र में भिन्न निन्द्र प्रकार के अनेक नाव है बसे राजस ज्ञाद समतो। (२३) परन्तु जो निकारण और तत्वाय को बिना नाने में एक ही बात में यह सनन कर आवक रहता है कि यही सब कुई, वह अल्ल ज्ञान तामस कहा गया है। । [निन्न भिन्न ज्ञानों के लक्षण बहुत व्यापक हैं। अपने बाल-बच्चों और त्रिी को ही सारा संसार समनना तामस ज्ञान है। इससे कुछ बी सीढ़ी पर पहुंचने से दृष्टि अधिक च्या क्षेती जाती है और अपने गाँव का अथवा देश मनुष्यं भी अपना सा सँचने सगता है, तो मी यह बुद्धि बनी ही रहती है. कि मिन्न निक गाँवों अयवा देशों के लोग मित्र मित्र हैं। यही ज्ञान रानल . कहलाता है। परन्तु इससे भी ऊँचे जाकर प्राणिमात्र में एक ही प्रात्ना को पह- चानना पूर्ण और साविक ज्ञान है। लार यह हुआ कि 'बिमळ में अविभक्त' अथवा 'अनेकता में एकता को पहचानना ही ज्ञान का सच्चा सत्रण है। और, हदारण्यक एवं कठोपनिपड़ों के वर्णनानुसार जो यह पहचान लेता है कि इस जगत् में नानात्व नहीं है-"नेह नानास्ति किंवन", वह मुझ हो जाता है परन्तु तो इस जगत ने अनेकता देखता है, वह बन्म-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है- "मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानव पश्यति । (कृ.१.१. IN क... इस जगत में जो कुद्रमान प्राप्त करना है, वह यही है (गी. १३.६), और ज्ञान की. यही परम सीमा क्योंकि समी के एक हो !जाने पर फिर एकीकरण की ज्ञान-भिन्या को आगे बढ़ने के लिये स्थान ही नहीं रहता (देतो गातार पृ. २३२-२२३) । एकीकरण करने की इस ज्ञान-क्रिया का निरूपण गीतारहस्य के नवे प्रकरण (पृ.२१५-२६) में किया गया है।