३२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । S$ शानं शेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना । [कई टीकाकारों ने तेरहवें श्लोक के सांख्य' शब्द का अयं वेदान्तशास्त्र किया है। परन्तु प्रगला अर्थात चौदहवाँ लोक नारायगीयधर्म (ममा. शां. १३४७.८७) में अक्षरशः भाया है, शार व उसके पूर्व कापिन सांख्य के ताव-प्रकृति और पुरुष-फा ग्लेख है। स्तः हमारा यह मत है कि सांख्य' शब्द से इस स्याग में कापिल साल्यशान ही अभिप्रेत है। पहले गीता में यह सिद्धान्त भनेक बार कहा गया है कि मनुष्य को न तो कर्मफल की भाशा करनी चाहिरे और न ऐसी अवारसद्धि मन में रखनी चाहिये कि मैं अमुक करा (गी. २. 11; २.४५, ३.२,५.८-११, १३.२८)।यहाँ पर वही सिद्धान्त यह कह कर दृढ़ किया गया है कि “कर्म का फल होने के लिये मनुष्य ही अकेशा कारण नहीं है। (देखी गीतार. प्र.)। चौदहवें शोक का म यह है कि मनुष्य इस जगत् में हो या न हो, प्रकृति के स्वभाव के अनुसार जगत् का अखरिटत व्यापार चलता ही रहता है और जिस कर्म को मनुष्य अपनी किरतूत समझता है, वह केवल इसी के यत्न का फल नहीं है, पल उसके यत्न और संसार के अन्य व्यापारी प्रथयां घेष्टानों की सहायता का परिणाम। जिसे कि खेती केवल मनुन्य केही यंत्न पर निर्भर नहीं है, इसकी सफलता के लिये धरती, वीज, पानी, खाद और पैन आदि के गुण-धर्म अथवा ग्यापारों की सहायता मावश्यक होती है। इसी प्रकार, मनुष्य के प्रयत्न की सिदि हार के लिये जगत् के जिन विविध व्यापारों की सहायता प्रावश्यक है उनमें से कुछ व्यापारों को जान कर, उनकी अनुकूलवा पा कर ही मनुष्य बत्ल किया करता है परन्तु हमारे प्रयत्ना के लिये अनुकूल अथवा प्रतिकूल, सृष्टि के और भी कई स्यापार हैं जिनका हमशान नहीं है। इसी को देव कहते हैं और कर्म की घटना का यह पाचवा कारण कहा गया है। मनुष्य का यत्न सफल होने के लिये जब इतनी सट बातों की भावश्यकता है तथा जब उनमें से कई या तो हमारे वश की नहीं या हमे ज्ञात भी नहीं रहती; तब यह बात स्पष्टतया सिद्ध होती है कि मनुष्य का ऐसा अभिमान रखना निरी मूर्खता है कि मैं अमुक काम करूँगा अयषा ऐसी फलाशा रखना भी मूर्खता का लक्षण है कि मेरे कर्म का फल अमुक ही होना चाहिये (देखो गीतार. पृ. ३२६-३२७) । तथापि सिनव श्लोक का अर्थ या भी न समझ लेना चाहिये कि जिसकी फलाशा छूट जाय वह चाहे जो कुकर्म कर सकता है । साधारण मनुष्य जो कुछ करते हैं, वह स्वार्थ के लोम से करते हैं, इसलिये उनका बताव अनुचित दुमा करता है। परन्तु जिसका स्वार्थ या लोभ नष्ट हो गया है अथवा फजाशा पूर्णतया वितीन हो गई है और जिसे प्राणिमात्र समान ही हो गये हैं। उससे किसी का भी मनहित नहीं हो सकता ।कारण यह है कि दोष बुदिरहता है,नकिकर्म में। भितएव जिसकी पुदि पहले से शुद्ध और पवित्र हो गई हो, उसका किया दुमा
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