८२६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाम। त्यागस्य च दृषीकेश पृथक्कशिनिषूदन ॥१॥ श्रीभगवानुवाच । काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः। कर्मयोग-मार्ग में है या नहीं और नहीं है तो, 'संन्यास' एवं 'त्याग'शब्दों का मर्य क्या है ? देखो गीतारहस्य पृ.३९६-३४८1] मर्जुन ने कहा-(१) हे महाबाहु, हृषीकेश ! मैं संन्यास का तस्व, और है केशिदत्य-निषूदन !त्याग का ताव पृषक् पृथक् लाननों चाहता हूँ। । [संन्यास और त्यागे शन्दों के उन अयों अथवा मैदा को जानने के लिये यह प्रश्न नहीं किया गया है कि जो कोशकारों ने किये है । यह न समझना }चाहिये कि अर्जुन यह मी न जानता था कि दोनों का धात्वर्ष " छोड़ना है। परन्तु पात यह है कि भगवान् कर्म छोड़ देने की भाशा कहीं भी नहीं देते; अस्थि चौथे, पाँचवें श्रयवा छठवें अध्याय (१.४१,५.१३:६.३) में या अन्यत्र जाही कहीं संन्यास का वर्णन है वहाँ, उन्होंने यही कहा है कि केवलं फलाशा का 'त्याग' करके (गी. १२.१) सर कमी का 'संन्यास' को अर्थात् सब कर्म परमे. वर को समर्पण करो (.३० १२.६)। और, उपनिषदों में देखो तो कर्मत्याग. प्रधान संन्यास धर्म के ये वचन पाये जाते हैं कि 'न कर्मणा न अनया धनेन त्यागेनैकेनामृतत्वमाशुः (के... नारायण. १२.३)। सब कर्मों का स्वरूपतः 'त्याग' करने से ही कई एकों ने मोक्ष प्राप्त किया है, अथवा " चेदान्तविज्ञान- सुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्वा:" (मुरारक३.२.६)-कर्मत्यागरूपी 'संन्यास' योग से शुद होनेवाले 'यति' या " प्रजयों करिष्यामः" (वृ. ४. १.२२)-हमें पुत्रपात्र आदि प्रजा से क्या काम है ? अतएव मर्जुन ने समझा कि भगवान् स्मृतिग्रन्धों में प्रतिपादित चार आश्रमों मेंसे कर्म-त्यागरूपी संन्यास मात्रम के लिये 'त्याग' और 'संन्यास' शब्दों का उपयोग नहीं करते, किन्तु वे और किसी अर्थ में उन शब्दों का उपयोग करते हैं। इसी से अर्जुन ने चाहा कि उस अर्य का पूर्ण स्पष्टीकरण हो जाय। इसी हेतु से उसने उक्त प्रश्न किया है। गीता- रहस्य के ग्यारहवें प्रकरण (पृ.३६-३४८) में इस विषय का विस्तारपूर्वक विवे. चन किया गया है।] श्रीभगवान् ने कहा-(२) (जितने) कास्य कर्म हैं, उनके न्यास भर्यात छोड़ने कोही ज्ञानी लोग संन्यास समझते हैं.(तया) समस्त कर्मों के फलों के त्याग को पपिटत लोग त्याग कहते हैं। i [इस श्लोक में स्पष्टतया बतना दिया है कि कर्मयोग-मार्ग में संन्यास और त्याग किसे कहते हैं। परन्तु संन्यासमार्गीय टीकाकारों को यह मत पास नहीं; इस कारण उन्होंने इस श्लोक की बहुत कुछ खींचातानी की है। लोक में प्रथम ही 'काम्प' शब्द भाया है मतएव इन टीकाकारों का मत है कि यही मीमांसकों
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८६५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।