तीसरा प्रकरण। कर्मयोगशास्त्र । तस्माद्योगाय युज्यत्व योगः कर्मसु कौशलम् । * गीता २-५०। यदि किसी मनुष्य को किसी शास के जानने की इच्छा पहले ही से न हो 'तो वह उस शास्त्र के ज्ञान को पाने का अधिकारी नहीं हो सकता । ऐसे अधिकार-रहित मनुष्य को उस शास की शिक्षा देना सानो चलनी मैं दूध दुहना ही है । शिप्य को तो इस शिक्षा से कुछ लाभ होता ही नहीं परन्तु गुरु को भी निर- र्थक श्रम करके समय नष्ट करना पड़ता है । जैमिनि और बादरायण के सूत्रों के प्रारंभ में, इसी कारण से " अथातो धर्मजिज्ञासा " और "अथातो ब्रह्मजिज्ञासा" कहा हुआ है। जैसे प्रलोपदेश मुमुलुओं को और धर्मोपदेश धर्मेच्छुओं को देना चाहिये, वैसे ही कर्मशास्त्रोपदेश उसी मनुष्य को देना चाहिये जिसे यह जानने की इच्छा या जिज्ञासा हो कि संसार में कर्म कैसे करना चाहिये । इसी लिये हमने पहले प्रकरण मैं, 'अधातो' कह कर, दूसरे प्रकरण में कर्मजिज्ञासा' का स्वरूप और कर्मयोगशास्त्र का महत्व बतलाया है। जब तक पहले ही से इस बात का अनु- भव न कर लिया जाय कि अमुक काम में अमुक रुकावट है, तब तक उस अड़चन से छुटकारा पाने की शिक्षा देनेवाले शारख का महत्व ध्यान में नहीं आता; और महत्व को न जानने से, केवल स्टा हुआ शाल समय पर ध्यान में रहता भी नहीं है। यही कारण है कि जो सद्गुरु हैं वे पहले यह देखते हैं कि शिप्य के मन में जिज्ञासा है या नहीं, और यदि जिज्ञासा न हो तो वे पहले उसी को जागृत करने का प्रयत्न किया करते हैं। गीता में कर्मयोगशास का विवेचन इसी पद्धति से किया गया है। जब अर्जुन के मन में यह शंका आई कि जिस लड़ाई में मेरे हाथ से पितृवध और गुरुवध होगा तथा जिसमें अपने सब बंधुओं का नाश हो जायगा उसमें शामिल होना उचित है. या अनुचित; और जय वह युद्ध से पराङ्मुख हो कर संन्यास लेने को तैयार हुभा और जब भगवान् के इस सामान्य युक्तिवाद से भी उसके मन का समाधान नहीं हुआ कि समय पर किये जानेवाले कर्म का त्याग करना मूर्खता और दुर्यलता का सूचक है, इससे तुमको स्वर्ग तो मिलेगा ही नहीं, उलटी दुष्कीर्ति अवश्य होगी; तव श्रीभगवान् ने पहले " अशोच्यानन्वशोचस्त्वं
- • इसलिये तू योग का मामय ले । कर्म करने की जो रीति, चतुराई या कुशलता
है उसे योग कहते है। यह योग ' शब्द की व्याख्या अर्थात लक्षण है। इसके संबंध में अधिक विचार इसी प्रकरण में आगे चल कर किया है।