पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८५९

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८२० गीतारहस्य अथवा फर्मयोगशाला विधिहानमसृष्टानं मंत्रहीनमदक्षिणम् । श्रद्धाविरहितं यह तामसं परिचक्षते ॥ १३ ॥ 85 देवद्विजगुरुप्राशयुजनं शौचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ १४ ॥ अनुदंगकर वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥ १५ ॥ मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ १६ ॥ श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्रिविधं नरः । विधि-रहित, अन्नदान-विहीन, विना मन्त्रों का, दिना दक्षिणा का और श्रद्धा से शुन्य यज्ञ तामस यज्ञ कहलाता है। 1 [आहार और यज्ञ के समान तप के भी चीन भेद हैं । पहले, तप शायिक, वाचिक और मानसिक ये तीन भेद किये हैं। फिर इन तीनों में से प्रत्येक में सत्त्व, रज और तम गुणों से जो त्रिविधता होती है, उसका वर्णन किया है। यहाँ पर, तप शब्द से यह संकुचित अर्थ विवक्षित नहीं है कि जङ्गल में जा कर पातान-योग के अनुसार शरीर को कर दिया करे । किन्तु मनु का किया सुमा तप' शब्द का यह व्यापक अर्थ ही गीता के निम्न लिखित श्लोकों में अभिप्रेत है कि यज्ञ-याग आदि कर्म, वेदाध्ययन, अथवा चातुर्वर्य के अनुसार जिसका जो कर्तव्य हो जैसे क्षत्रिय का कर्तव्य युद्ध करना है और वैश्य का व्यापार इत्यादि-वही उसका तप है (मनु. ११.२३६).] (४१) देवता, ब्राह्मण, गुरु और विद्वानों की पूजा, शुद्धता, सरलता, अक्ष- चर्य और अहिंसा को शारीर अर्थात् कायिक तप कहते हैं । (१५) (मन को) द्वेग न करनेवाले सत्य, प्रिय और हितकारक सम्माषण को तथा स्वाध्याय अर्थात अपने कर्म के अभ्यास को वाङ्मय (वाचिक) तप कहते हैं । (६) मन को प्रसन्न रखना, सौम्यता, मौन अर्थात् मुनियों के समान वृत्ति रखना, मनोनिग्रह और शुद्ध भावना-इनको मानस तप कहते हैं। । [जान पड़ता है कि पन्द्रहवें श्लोक में सत्य, प्रिय और हित, तीनों शब्द मनु के इस वचन को लक्ष्य कर कहे गये हैं।- " सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात यूयाद सत्यमप्रियम् । प्रियच नानृतं घूयादेष धर्मः सनातनः ॥” (मनु... ११३८) यह सनातन धर्म है कि सच और मधुर (तो) बोलना चाहिये, परन्तु अप्रिय सच न बोलना चाहिये । तथापि महाभारत में ही विदुर ने दुर्योधन से कहा है कि " अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः " (देखो समा. ६३.१७) । अव कायिक, वाचिक और मानसिक तपों के जो भेद फिर भी होते हैं, वे यों हैं-] (१७) इन तीनों प्रकार के तपों को यदि मनुष्य फल की आकांदा न रख कर