गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र सप्तदशोऽध्यायः। ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥१॥ श्रीभगवानुवाच । त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा । सत्रहवाँ अध्याय । [यहाँ तक इस बात का वर्णन हुआ कि, फर्मयोग शास्त्र के अनुसार संसारमा धारण-पोषण करनेवाले पुरुप जिस प्रकार के होते हैं और संसार का नाश करनेवाले मनुष्य किस ढंग के होते हैं । अब यह प्रश्न सहज ही होता है कि मनुष्य-मनुष्य में इस प्रकार के भेद होते पयों हैं। इस प्रक्ष का उत्तर सातवे मध्याय के " प्रकृत्या नियताः स्वया " पद में दिया गया है, जिसका अर्थ यह है, कि यह प्रत्येक मनुन्य का प्रकृति-स्वभाव है (७. २०) । परन्तु वहाँ सत्त्व-ज-तममय तीनों गुणों का विक- चन क्रिया नहीं गया था; अतएव वहाँ इस प्रकृतिजन्य भेद की उपपत्ति का विस्तार- पूर्वक वर्णन भी न हो सका । यही कारण है जो चौदहवें अध्याय में त्रिगुणों का विवेचन किया गया है और अब इस अध्याय में वर्णन किया गया है कि त्रिगुणों से पत्पन्न होनेवाली श्रद्धा आदि के स्वभाव-भेद क्योंकर होते हैं और फिर इसी अध्याय में ज्ञान-विज्ञान का सम्पूर्ण निरूपण समाप्त किया गया है। इसी प्रकार नवे अध्याव में भक्तिमार्ग के जो अनेक मेद बतलाये गये है, उनका कारण भी इस अध्याय की सपपत्ति से समझ में शा जाता है ( देखो ३. २३, २४)। पहले मर्डन पों पूछता है कि- अर्जुन ने कहा-(१) हे कृष्ण! जो लोग श्रद्धा से युक्त होकर, शास्त्र-निर्दिश विधि को छोड़ करके यजन करते हैं, उनकी निष्ठा अर्थात (मन की स्थिति कैसी ई-साविक है, या राजस है, या तामसी 1 [पिछले अध्याय के अन्त में जो यह कहा गया था कि, शास्त्र की विधि का अथवा नियमों का पालन अवश्य करना चाहिये उली पर अर्जुन ने यह शङ्का की है। शास्त्रों पर श्रद्धा रखते हुए भी मनुष्य अज्ञान से भूल कर बैठता है। उदाहरणार्थ, शास्त्र-विधि यह है कि सर्वव्यापी परमेश्वर का भजन-पूजन करवा चाहिये; परन्तु वह इसे छोड़ देवताओं की धुन में लग जाता है (गी. ६.२३)। अतः अर्जुन का प्रश्न है कि ऐसे पुरुष की निष्ठा अर्थात् अवस्था अथवा स्थिति कौन सी समझी जावे । यह प्रश्न टन मासुरी लोगों के विषय में नहीं है किजो शास्त्र का और धर्म का अश्रद्धापूर्वक तिरस्कार किया करते हैं। तो भी इस मध्याय में प्रसङ्गानुसार उनके कर्मों के फलों का भी वर्णन किया गया है।
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