गीता, अनुवाद और टिप्पणी १६ अध्याय । पतर्विमुक्त कौतेय तमाद्वारीलिभिर्नरः । माचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति पप गतिम् ॥ २२ ॥ 35 यः शाखाविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः। न स सिद्धिमघामोतिन सुखं न पगतिम् ॥२३॥ तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते, कार्याकार्यव्यवस्थिती। ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहाहसि ।। २४॥ इति श्रीमद्भगपद्गीतामु उपनिषत्सु प्रभाविद्यायां योगशाले श्रीमग्णार्जुन- संपादे देवासुरसंपद्विभागयोगो नाम पोदशोऽध्यायः ॥ १६॥ माश फर मानते हैं। इसलिये इन तीनों का त्याग करना चाहिये । (२२) हे कौन्तेय ! इन तीन तमोहारों से छूट कर, मनुष्य यही आचरण करने लगता है कि जिसमें उसका पात्यागा और फिर उसम गति पा जाता है। [प्रगट है कि नरक के तीनों दरवाजे छुट जाने पर सद्गति मिलनी ही चाहिये। फिन्तु यह नहीं बतलाया कि कौन सा पाचरण करने से ये छूट जाते हैं। प्रतः प्रय उसका मार्ग यतकाते हैं-] (२३) जो शासोक्त विधि छोड़ कर मनमाना करने लगता है, उसे न सिद्धि मिलती है, न सुख मिलता है और न उत्तम गति ही मिलती है। (२४) इसानिये कार्य-मकार्य-व्यवस्थिति का अर्थात् कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय करने के लिये तुझे शाखों का प्रमागा मानना चाहिये । और शास्त्रों में जो कुछ कहा है,. उसको समझ फर, तदनुसार इस जोक में फर्म करना तुझे उचित है। । [इस श्लोक के कार्याकार्यव्यवस्थिति ' पद से स्पष्ट होता है कि कर्तव्य- शाख की अर्याद नीतिशास्त्र की कल्पना को रष्टि के शागे रख कर गीता का उप- विश किया गया है । गीतारहस्य (पृ. ४८-५०) में स्पष्ट कर दिखला दिया है कि इसी को कर्मयोगशाख कहते हैं। भस प्रकार श्रीभगवान् के गाये हुए अर्थात् कहे हुए उपनिषद् में, महाविद्यान्त- गत योग-प्रांत फर्मयोग-शासविषयक, श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में, देवा सुरसम्पद्विभाग योग नामक सोलहवीं अध्याय समाप्त हुआ।
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