गीता, अनुवाद और टिप्पणी- १६ अध्याय । ८०९ पोडशोऽध्यायः। श्रीभगवानुवाच । अमयं सत्त्वसंशुद्धिानयोगव्यवस्थितिः। दानं दमश्च यशश्च स्वाध्यापस्तप आर्जवम् ॥ १॥ अहिंसासत्यमकोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् । दयाभूतेप्बलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् ॥ २॥ तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता । भवन्ति संपदं देवीमाभिजातस्य भारत ॥३॥ सोलहवाँ अध्याय। [पुरुषोतमयोग से चार अक्षर-शान की परमावधि हो चुकी; सातवें अध्याय में जिस ज्ञान-विज्ञान के निरूपण का भारम्भ यह दिखजाने के लिये किया गया था कि, कर्मयोग का आचरण करते रहने से ही परमेश्वर का ज्ञान होता है और उसी से मोक्ष मिलता उसकी यहाँ समाप्ति हो चुकी और अब यहीं उसका उपसंहार करना पाहिये । परन्तु न मध्याय (E. १२) में भगवान् ने जो यह विलकुल संक्षेप में कक्षा पा कि राक्षसी मनुष्य मेरे अन्यफ और श्रेष्ठ स्वरूप को नहीं पहचानते, उसी का स्पष्टीकरण करने के लिये इस अध्याय का आरम्भ किया गया है और अगले अध्याय में इसका कारण यतलाया गया है कि मनुष्य-मनुष्य में भेद क्यों होते हैं। और अठारहवें मध्याय में पूरी गीता का उपसंहार है। श्रीभगवान ने कहा-(१) अभय (निडर), शुद्ध साविक वृत्ति, ज्ञान-योग- व्यवस्थिति पर्यात् ज्ञान (मार्ग) और (फर्म-)योग की तारतम्य से व्यवस्था, दान, क्ष्म, यज्ञ, स्याध्याय अर्थात स्वधर्म के अनुसार आचरण, तप, सरलता, (२) अहिंसा, सत्य, अक्रोध, कर्मफन का त्याग, शान्ति, अपैशुन्य अर्थात् क्षुद्र-दष्टि छोड़ कर उदार भाव रखना, सय भूतों में श्या, तृपणा न रखना, मृदुता, (पुरे काम की) लाज, मच- पलता अर्थात् फिजूल कामों का छुट जाना, (३) तेजस्विता, क्षमा, धृति, शुद्धता, दोह न करना, भतिमान न रखना है भारत ! (2) गुण दैवी सम्पत्ति में जन्मे हुए पुरुषों को प्राप्त होते हैं। । [दैवी सम्पत्ति के थे छब्बीस गुण और तेरहवें अध्याय में बतलाये हुए ज्ञान के बीस लवण (गी. १३.७-११) वास्तव में एक ही हैं और इसी से भागे के श्लोक में अज्ञान ' का समावेश मापुरी लक्षणों में किया गया है। यह नहीं कहा जा सकता कि बच्चीस गुणों की इस फेहरिस्त में प्रत्येक शब्द का अर्थ दूसरे शब्द के अर्थ से सर्वथा भिन्न होगा; और इत भी ऐसा नहीं है। उदाहरणार्थ, कोई कोई अहिंसा के ही कायिक, वाचिक और मानसिक भेद गी.र. १०२
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