पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/८४६

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गीता, अनुवाद और टिप्पणी-१५ अध्याय । छाविमौ पुरुपौ लोके क्षारश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१६॥ उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः एरमात्मेत्युदाहतः। यो लोकत्रयमाविश्य विमर्त्यव्यय ईश्वरः ॥१७॥ यस्मात्क्षरमतीऽतोहमक्षरादपि चोसमः । अतोऽस्मि लोके वंदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ १८ ॥ और ही अर्ध लेना चाहिये वे सब दलीलें वे जड़-बुनियाद की हो जाती हैं। "वेदान्त ' शब्द मुण्डक (३. २.६) और श्वेताश्वतर (६.२२) उपनिषदों में पाया है, तथा श्वेताश्वतर के तो कुछ मन्त्र ही गीता में हुबह भागये हैं। अय निरुक्तिपूर्वक पुरुषोत्तम का लक्षण बतलाते हैं-] (१६) (इस) लोक में 'क्षर' और 'अक्षर' दो पुरुप है । सब (नाशवान् ) भूतों को क्षर कहते हैं और कूटस्थ मो, अर्थात् इन सय भूतों के मूल (कूट) में रहनेवाले (प्रकृतिरूप अव्यक्त तत्व) को पक्षर कहते हैं । (१७) परन्तु उत्तम पुरुष (हन दोनों से) भिन्न है । उसको परमात्मा कहते हैं। वहीं अन्यय ईश्वर त्रैलोक्य में प्रविष्ट होकर (त्रैलोक्य का) पोपण करता है । (11) जव कि मैं हर से भी पर का और अक्षर से भी उत्तम (पुरुष) इं, लोक व्यवहार में और वेद में भी पुरुषो- तम नाम से मैं प्रसिद्ध हूँ। [सोलहवं श्लोक में 'क्षर' और 'अक्षर शब्द सांख्यशास्त्र के व्यक्त और अव्यक्त अथवा व्यक्त सृष्टि और अव्यक्त प्रकृति-इन दो शब्दों से समानार्थक प्रगट है कि इनमें क्षर ही नाशवान् पञ्चभूतात्मक व्यक्त पदार्थ है। स्मरण रहे कि 'अक्षर' विशेषण पहले कई वार जन परब्रह्म को भी लगाया गया है (देखो गी. ८.३८.२१ ११. ३७६ १२.३), तय पुरुषोत्तम के उल्लिखित लक्षण में 'अक्षर' शब्द का अर्थ अक्षर ब्रह्म नहीं है, किन्तु उसका अर्थ सांख्या की अक्षर प्रकृति है और इस गड़बड़ है अचाने के लिये ही सोलहवें श्लोक में अक्षर अर्थात् कूटस्थ (प्रकृति) यह विशेष व्याख्या की है (गीतारहस्य पृ. १२०१-२०४)। सारांश, व्याज सृष्टि और अव्यक्त प्रकृति के परे का अक्षर नय i(गी. ८. २०-२२ पर हमारी टिप्पणी देखो) और 'कर' (व्यक्त सृष्टि) एवं 'अक्षर' (प्रकृति) से परे का पुरुषोत्तम, वास्तव में ये दोनों एक ही है। तेरहवें अध्याय ( १३.३१) में कहा गया है कि इसे ही. परमात्मा कहते हैं और यही परमात्मा शरीर में क्षेत्र रूप से रहता है। इससे सिद्ध होता है कि तर-मक्षर-विचार में जो मूल तत्त्व अक्षरमहा अन्त में निष्पन्न होता है, वही क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार का भी पर्यवसान है, अथवा में और ब्राण्ड में एक ही पुरुषोत्तम है। इसी प्रकार यह भी बतलाया गया है कि अधिभूत और अधिषज्ञ प्रभृति का अथवा प्राचीन प्रश्वध वृक्ष का तक भी यही है। इस