८०४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः। द्वैचिमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमन्ययं तत् ॥ ५॥ न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः । यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥६॥ $$ ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ ७ ॥ शरीरं यदद्वामोति यच्चाप्युत्कामतीश्वरः । व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध है। प्रायः इसी कारण से शाङ्करमाप्य में यह पाउ स्वीकार नहीं किया गया है, और यही युक्तिसंगत है। छान्दोग्य उपनिषद् के कुछ मन्त्रों में प्रपद्ये ' पढ़ का बिना 'इति के इसी प्रकार उपयोग किया गया है (छां. ८. १४.१)। प्रपद्ये 'क्रियापद प्रथमपुरुषान्त हो तो कहना न होगा कि विता से अर्थात् उपदेशकर्ता श्रीकृष्ण से उसका सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता। धव यह बतलाते हैं कि इस प्रकार वर्तने से क्या फल मिलता है- (५) जो मान और मोह से विरहित हैं, जिन्होंने आसकि-दोष को जीत लिया है, जो अध्यात्म-ज्ञान में सदैव स्थिर रहते हैं, जो निष्काम और सुख-दुःख-संज्ञक द्वन्द्वों से मुक्त हो गये हैं, वे ज्ञाता पुरुष यस अध्यय स्थान को ना पहुँचते हैं। (६) जहाँ जा- कर फिर लौटना नहीं पड़ता, (पैसा) वह मेरा परम स्थान है । उसे न तो सूर्य, न चन्द्रमा (और) न अग्नि ही प्रकाशित करते हैं। [इनमें छालो श्वैताश्वतर (६. १८), मुण्डक (२.२.३०) और कठ (५. ५) इन तीनों उपनिषदों में पाया जाता है । सूर्य, चन्द्र या तारे, ये समी तो नाम-रूप की श्रेणी में आ जाते हैं और परब्रह्म इन सब नाम-रूपों से परे हैं। इस कारण सूर्य-चन्द्र आदि को परग्रह के ही तेज से प्रकाश मिलता ई, फिर यह प्रगट ही है कि परब्रह्म को प्रकाशित करने के लिये किसी दूसरे की अपंचा ही नहीं है। जपर के श्लोक में परम स्यान' शब्द का अर्थ 'परब्रह्म' और इस ब्रह्म में मिल जाना ही ब्रह्मनिर्वाण मोक्ष हैं । वृक्ष का रूपक लेकर अध्यात्मशास्त्र में परब्रह्म का जो ज्ञान प्रतलाया जाता है, उसका विवेचन समाप्त हो गया। अब पुरुषोत्तम-स्वरूप का वर्णन करना है। परन्तु अन्त में जो यह कहा है कि " जहाँ जाकर जौटना नहीं पड़ता" इससे स्चित होनेवाली जीव की उत्क्रान्ति और उसके साथ ही जीव के स्वरूप का पहले वर्णन करते हैं- (७) नीवलोक (कर्मभूमि) में मेरा ही सनातन अंश जीव होकर प्रकृति में रहनेवाली मन सहित छः, अर्थात् मन और पाँच, (सूम ) इन्द्रियों को (अपनी और ) खींच लेता है (इसी को लिंग-शरीर कहते हैं)।(6) ईश्वर अर्थात् जीव जब (स्यूल) शरीर पाता है और जब वह (स्यूल) शरीर से निकल जाता है, तब यह जीव इन्हें (मन और पाँच इन्द्रियों को) वैसे ही
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